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________________ अथ नृतीय सर्गः निगम्य गम्भाषणमंत देष श्रीभद्र मित्रो मृदुचिचलेशः ममजित विनमयात्मनीन दोयामिदानी ममभृत्प्रनीणः । प्रतिम प्रकार के नान्न को सुनकर वह कोमल चित्त का पारकरका भद्रमित्र प्रब प्रपने मन में सोचने लगा कि अपने हायों में होनमाना ठोक है । अनी नमम्मच पितः परम्नानि दयामाम विदामनम्नां । आदेश नास्ति यती गुरूणां फलप्रदोऽम्मभ्यमह पुरूणां ।२ प्र-िपोर इसलिये उमने प्रपने पिता के प्रागे जाकर उन मे पर बात में भी अपने माथियों के साथ परदेश धन कमाने के लिये जाना चाहता है. मा प्राज्ञा काजिये, क्योंकि अपने से बड़े गुमलोगों का प्रादि । इन लोगों को सफल बनानेवाला होता आदिम उमा मम ममम्ति ततो हि मन्नापकरप्रशतिः । विध:कलामपायद कमन पितुः प्रमयं जगतोऽप्यलंमः ।३ नेपापित जो देग्यो कि सूर्य पृष्यों के संगृहीत रमको ग्रहण करने वाला है इमोलिये वह सबको सन्ताप देने वाला बना वा चामा प्रपनी कलावों द्वारा पित के घन को घटाता है हम ये वर मागे दुनिया को प्यारा लगता है।
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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