SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 31
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरिदेति पयोनिधि न म मरितं मोऽयमुदति मंगमः । प्रचलम इतो महाशय ! कमियाक्कूलोद्भवा वयं ।२७ प्रर्थ-इस पर ऐरावण ने जवाब दिया कि हे महाशय ! पाप का कहना तो ठीक है किन्तु ममुद्र के पास नदी स्वयं जा पहचतो है न कि समुद्र उसके पास जाया करता ) घर एक मानी हुई बात है। तिस पर भी हम लोग इवाफ कल में पंदा ये है फिर हम लोग उपर्युक्त नियम का उल्लंघन कमे कर मकते हैं, प्रयात माप चाहें तो उसे यहां लाकर मेरे माप विवाह सकते है। इन्याकण्यं निजात पुगदिह महाकार: प्रियङ्ग श्रिय, मानतु प्रकार नत्र पथि तत्कन्पानुग्नाहियं । त्यावकः बन्नु व बसेनयननः मयान मग्नः कलं.. मम्पातः समभृनयोः नवकारापकण्ट, म्यलं ।। २८।। प्रयं-ऐमो बात सुनकर वह माकन्छ गजा प्राना लएको प्रियङगुश्री को अपने गांव में से यहां लाने के लिये तयार दया । वह उसे ला हो रहा था कि रास्ते में उसके बाद एक वचमेन नाम का व्यक्ति लज्जा त्याग कर हो लिया निमको कि नर उमलएको पर पहले ही में लगी हुई यो एवं उन दोनों को ठोक म्नकगुच्छ मगर के समीप में प्राकर मुटने र हो गई। अन्वतदंगवणवागिहागदागन्य जिन्वाऽरिमपन्य वागे । मानन्दमेप प्रकार काल-क्षेपं नया माम्बलु भूमिपालः १२९ प्रयं-जब हम बात को ऐगवण ने मुनी तो वह वहां पर झट से प्राया और बरी वनसेन को जोतकर उमने उमलाको के
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy