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________________ इह पर्यटनार्थमागतां खगकन्याम मी ममारतां । अनिमेष दृशैव पश्यति न परं भेदम मानगेऽम्यति ।७ पर्य-इस पर्वत पर हवाखोरो के लिये प्राई हुई पोर माकद यहांको विद्याषरों को कन्यामों में मिल गई हुई प्रपनो देवो को ढूंढने वाला देव बहुत देर तक इकटक नजर मे देखता हो रहता है, बहुत देर बाद जब और कोई भेद नहीं पाता तो बिना निमेषके लोचनों द्वारा उसे पहिचान पाता है क्योंकि प्रोरतों के पलक लगते हैं किन्तु देवियों के नों। विपिनोऽपि कौतुकानिमलिनागीनवनीम नाम का । अतिमार्दवतो नभश्वरी स्ववमानीव गुणेन किन्नग ।।८।। प्रथं-इस पर्वत के वन मे इधर उधर में कहीं से कौतुक क वा प्राकर गान करने वाली विद्याधारियों में प्राकर शानिलाई किन्नरी उनके रूपको कोमलता प्रथवा उनके मधुर भाषण के आगे गुण में हीन होकर वस्तुतः किन्नरी पर्यात नीच प्रौरत प्रतीत होतो 'ना रुचिमल्लकुनाञ्चितानटी-ह पवित्रोदविकाशमंकटी युवनेः मदृशी महीभृति मृदुग्म्भोमनया मना मनी ।९ प्रयं-उस विजया पर्वत पर वह जो काटनी है वह एक नवयौवन वाली स्त्री सरोवो प्रतीत होती है क्योंकि स्त्री को जंघाय केलेके थम्भ समान होती है और वहां बहन में केले के खम्भ हो बड़े हैं । स्त्री उत्तमशोभायुक्त स्तनों वाली होती है किन्तु वहां
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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