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________________ ११८ था । तथा जो छल रहित हो वह प्रपने श्रापमें छलको जगह नहीं देता है फिर भी वह मायाचार को दूर करके अपने प्रापके गुणों को निर्मल बना चुका था । एवं जो बढ़ते हुये लोभ वाला हो वह लोभ का नाशक कंसा ? तथापि प्रागे से धागे बढ़ती हुई कलाका श्रात्म शक्तिका धारक हो उस महात्माने लोभको भी जड़से उखाड़ डाला था । अल्पादल्पतरं गृह्णन्विरेचनमिव क्रमात् । मलं निगचकारात्मगतं म बहुतो बहु |२८| प्रयं - जैसे बद्धकोष्ठवाला प्रादमी जुलाब लिया करता है तो पहले वह ऐसी पूरी मात्रा में लेता है ताकि उसका सूखा मल फूल कर निकलने लग जावे। दूसरे दिन साधारण मात्रा में उसे ग्रहरण करता है किन्तु उससे उसका वह फूला हुवा मल निकल बाहर होता है। तीसरे दिन फिर कुछ थोड़ी सी औौर ले लेता है जिससे उसका रहा सहा मल निकल कर तबियत बिलकुल ठोक हो जाती है, उमीप्रकार उस महात्माने भी उत्तरोत्तर योगों की चेष्टा कमसे कम किन्तु भली से भली करते हुये धागे के लिये कमसे कम कर्म परमानों का ग्रहरण किया, किन्तु उससे उसके पूर्व संचित कर्म कलङ्कका अधिक से भी अधिक निरसन होता रहा । नवामनुद्भवां के पुरापूतिन्तु शोधयन । वात् एवावृतेः क्षयः । २९ । : अर्थ- जैसे एक शख चिकित्सक-फोड़े फुंसी का इलाज करनेवाला प्रादमी ऐसा उपाय किया करता है ताकि फोड़े में से
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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