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________________ १०६ अथ नवम् सर्गः यथाजातपदं लेभे परित्यज्याखिलं बहिः । शरीराच्च विरक्तः समन्तरात्मतया स हि ।।१।। मर्थ-उसने अपने शरीर के सिवा प्रोर सब बाहिरी चीजों का त्याग कर दिया एवं शरीर से भी अपने पापको भिन्न मानते हुये वह शरीर से भी बिलकुल विरक्त होकर रहने लग गया, तत्काल के पंदा हये लड़के की भांति विकार रहित सरल प्रवस्था धारण करली। पिच्छा संयमशुद्धयर्थं शौचार्थं च कमण्डलु । निर्विण्णान्तस्तया दधे नान्यत्किश्चिन्महाशयः ।।२।। अर्थ-वह महाशय प्रब सांसारिक बातों से एकदम विरक्त होगया, इसलिये अपने पास मोर कुछ भी न रख कर उसने सिर्फ अपने संयम को उत्तरोत्तर निर्मल बनाने के लिये एक मयूर पंखों को पिच्छो जिससे कि समय पर किसी भी जन्तु को सहज में दूर हटा दिया जाय और दूसरा शौच करने के लिये कमण्डलु, ये वो चीजें अपने पास रक्खों सो भी उदासीनता से। पटेन परिहीणोऽपि बहुनिष्कपटोऽभवत् । अभृपणत्वमप्याप्तो भुवो भृपणतां गतः ।। ३ ।। वर्ष-यद्यपि उसके शरीर पर कोई भी प्रकार का कपड़ा
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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