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________________ होती है उसी मात्रामें वह ग्रहण करके पकाती है और रस रक्तादि रूप यथोचित रीति से विभक्त होकर वह हम लोगों को वैसा हो अपना फल दिखाता है । बस इसी प्रकार जिस तीव्र मन्द या मध्यम कषायभाव से यह जोव कम वर्गणा समूह का ग्रहण करता है यह यथोचित ज्ञानावरगादि के रूपमें विभक्त होकरके वैसा ही अपना प्रभाव इस प्रात्मा पर डालता है जिसमे कि यह संसारी जीव दुःग्यो होता है। यदेकदावद्धमनककाले प्रतिक्षणं तावदेति चाले । यावनिम्थतीत्थं बदकालभावि कमकका ने पि भवेत्यमावि ।१४। प्रथ-हे मित्र ! एक बात और जान लेना चाहिये कि भोजन के समान एक बार का ग्रहण किया हुवा कम स्कन्ध भी जब तक कि उसका स्थिति काल होता है प्रतिक्षग्ग बदत काल तक उदय में प्राया करता है एवं बार २ यह जीव कम ग्रहण करता रहता है, प्रतः प्रनेक समय का ग्रहण किया हुवा कम पिण्ड भी मिलकर एक समय में इस जीव को फलप्रद होता है। मत्तागते कर्मणि बुद्धिनावाऽपकप गोकपणमंक्रमा वा । भवन्ति नस्मादिह नीवमन्द-दगाऽपि भ्यान्मुगुणककन्द ! ।१५। प्रयं-हे गुणों के भण्डार ! यह भी याद रखो कि किसीने गुस्से में प्राकर विष वाया और बाद में उसका विचार बदल गया तो झट से उसके प्रतिकार की दवा खाकर उसके प्रसर को न कुछ सरीखा बहुत ही कम कर सकता है, प्रत्युत गुस्से में भर जाय
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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