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________________ कर्माग्न्ययापहलमङ्गिनानमङ्गीतिजीवंतदिगभ्युपा । मुवर्णपाषाणबदम्न्यनादिन्धिोऽनयोः सर्व विदेत्यवादि ।७ प्रयं-कर्मों से युक्त जीवका नाम प्रङ्गी और उस प्रङ्गी के द्वारा प्राप्त किये हुये पुदलों का ही नाम कम है एवं स्वर्णपाषाण में जिम प्रकार मुवरणं प्रार कोटका सम्बन्ध प्रनादि प्रकृत्रिम होता है. वंमा हो इनका भी है, ऐसा सर्वज भगवान ने बतलाया है । हन्यकमनम्य गुणं तु घाति नदङ्गमावान परमम्न्यघाति । नयाश्चतुधावादारयन्ति जिना जगत्यत्र नमां जयन्ति ।८ प्रथं-जिन भगवान ने इस संसार में होने वाले उन कर्मों को अच्छी तरह जीत लिया है, उन्हीं जिन भगवान ने उन कर्मों को मूल में दो भागों में विभक्त कर बनलाया है, एक तो घाति दूसरा प्रघाति । जो प्रात्मा के अनुजीवि गुण का घात करने वाला हो वह घातिक मं, परन्तु प्रात्मा के किसी स्पष्ट गुरग का घात न कर सिर्फ उस घातिका अङ्गभूत होते हुये प्रात्मा के प्रतिजीवि गुण को हरता हो वह प्रघातिकम कहलाता है । फिर वे दोनों ही कर्म चार चार तरह के होते हैं जैसेहन्ति क्रमाज्ज्ञानशे च शक्तिमतम्य कुच्चि मदोपरति । चतुर्थ माभाति महाप्रभावमतोऽयमन्यत्र तकभावः । प्रथं- उनमें से घातिकम के तो ज्ञानावरण १, दर्शनावरण २, अन्तरराय ३ प्रौर मोहनीय ४, ये चार भेद होते हैं । जो ज्ञान को न होने दे उसे ज्ञानावरण, जो दर्शन न होने दे उसे वशंनावरण,
SR No.010675
Book TitleSamudradatta Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansagar
PublisherSamast Digambar Jaiswal Jain Samaj Ajmer
Publication Year
Total Pages131
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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