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________________ 45 पंजमलकिशोर मुखसार "बुगवीर"व्यक्तित्व एवं कृतित्व लेवन विद्या आपकी शोधपूर्ण लेखन-विद्या के दो स्वरूप स्पष्ट हैं, (1) सामाजिक और धार्मिक लेखन-आपने 1916 में 39 वर्ष की आयु में 'मेरी भावना' लिखी और अपनी जीवन-साधना का घोषणा-पत्र दिया। यह व्यक्तिगत ही नहीं, सार्वजनिक कर्तव्य पथ का भी आदर्श सिद्ध हुआ। इसके अनेक भाषाओं में अनुवाद हुए हैं और वह करोड़ों की संख्या में प्रकाशित एवं वितरित हुई है, होती रहती है और होती रहेगी। इसके अनुरूप ही आपने समाज में व्याप्त अनेक कुप्रथाओं और धारणाओं के विरोध में शास्त्रीय आधार दिये और उनमें सुधार का विगुल बजाया उन्होंने गृहस्थ धर्म पर अध्ययन करते-करते जैन धर्म की मूल परम्परा में आई अनेक विकृतियों का मूल खोजा और उसके लिए भट्टारक प्रथा को उत्तरदायी माना, यद्यपि इस प्रथा से जैन धर्म सुरक्षित एवं संरक्षित भी रहा। इस अध्ययन के फलस्वरूप आपने 'ग्रंथ-परीक्षा' के चार भाग लिखकर परंपरागत संस्कारों पर कड़ा आघात किया। उनके अनुसार, मूल जैन परम्परा में बहुत कुछ मिश्रण हुआ हैं। उसमें पर्याप्त संशोधन की आवश्यकता है। यद्यपि इससे उत्तर भारत में तो भट्टारक प्रथा समाप्त हो गई, पर दक्षिण भारत में यह अब भी प्रभावशाली बनी हुई है। उनके लेखन के 80 वर्ष बाद अब भट्टारकों की मयूर-पिच्छी एवं उनके प्रति किये जाने वाले अभिनंदन पर भी अंगुलियां उठने लगी हैं। सामाजिक क्षेत्र में उन्होंने अंतर्जातीय विवाहों के समर्थन में 'विवाह समुद्देश्य' तथा 'विवाह क्षेत्र प्रकाश' नामक शास्त्रीय पुस्तकें लिखीं जो अभी भी अकाट्य हैं । यद्यपि अभी भी समाज का कुछ अंश इसका विरोधी है पर यह प्रथा अब काफी प्रचलन में आती जा रही है। अब इसके अनुसरण में सामाजिक दंड लुप्त हो गया है। इसी प्रकार, आपने जिन पूजाधिकार मीमांसा के माध्यम से 'दस्सा पूजाधिकार' का समर्थन दिया और कोर्ट में साक्ष्य भी दिया। इससे स्वामी सत्यभक्त के समान आपको असफलतः जाति च्युत भी किया गया। पुनः आपने पूजा' पर विविध कोटि का साहित्य भी सर्जन किया।
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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