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________________ जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व अदम्य और अपराजेय व्यक्तित्व-मुख्तार साहब बचपन से ही साहसी और अत्यंत लगनशील, कर्मठ व्यक्तित्व के धनी थे। कहा जाता है कि शायर, सिंह और सपूत लीक छोड़कर, अपना मार्ग आप बनाते हुए चलते हैं, इस आधार पर कहा जा सकता है कि जुगलकिशोर मुख्तार एक ऐसे ही सपूत का नाम था। सैकड़ों पुत्र मिलकर भी जिसकी बराबरी न कर पायें, ऐसा सपूत । 29 जैन इतिहास, साहित्य और संस्कृति के बारे में उनके मन में अनन्त जिज्ञासाएं थीं और उन्हीं के समाधान में वे जीवन भर पूरी तन्मयता, पूरी ईमानदारी तथा पूरी निस्पृहता के साथ लगे रहे। विघ्न-बाधाएं कभी उन्हें अपने लक्ष्य से विमुख नहीं कर पाई। असहायपने का अहसास, या यात्रा - पथ का अकेलापन उन्हें कभी अनुत्साहित नहीं कर पाया। उनके संकल्प सदा अदम्य रहे और उनका सादा-सा व्यक्तित्व हर हाल में अपराजेय बना रहा। यदि हमें बहुत संक्षेप में मुख्तार साहब के जीवन-दर्शन को रेखांकित करना हो तो हम यह कह सकते हैं कि उनकी साधना एक ओर निराकार की आराधना में निहित थी और दूसरी ओर वे साकार के उपासक भी थे। निराकार आराध्य के रूप में उन्होंने " अनेकान्त" को अपना आदर्श बनाया था और साकार उपासना के क्षेत्र में स्वामी समंतभद्र उनके उपास्य देवता थे। मुझे तो लगता है कि भगवान महावीर स्वामी के बाद, मुख्तार साहब के लिये, स्वामी समंतभद्र का ही स्थान था। समंतभद्र की चर्चा और गुणानुवाद करते वे कभी थकते नहीं थे और उन पूज्य आचार्य के स्मरण मात्र से उनके नेत्रों से प्रेम के अश्रु प्रवाहित होने लगते थे। अपने आदर्श पुरुष के प्रति मुख्तार साहब की इस प्रगल्भता और इस कोमल भावुकता का साक्षात्कार मुझे अनेक बार हुआ है । उस समय उनकी भाव-विभोरता देखते ही बनती थी। वह किसी भी प्रकार कहने या लिखकर बताने की बात नहीं है। मुख्तार साहब का कृतित्व दर्जनों ग्रन्थों और सैकड़ों शोधपरक लेखों के रूप में हमें उपलब्ध है, पर, मैं ऐसा समझता हूं कि गमक-गुरु आचार्यश्री समंतभद्र स्वामी के दिव्यावदान को जिन पृष्ठों पर उन्होंने बिखेरा है, वे पृष्ठ जुगलकिशोर मुख्तार के हृदय का प्रतिबिम्ब हैं, तथा समंतभद्र आश्रम, अनेकान्तपत्रिका और वीर सेवा मन्दिर के रूप में उनका मस्तिष्क प्रतिबिम्बित हुआ
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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