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________________ Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements सोलहवें "प ठाकुरदास जी का वियोग " शीर्षक निबन्ध में मुख्तार जी ने पंडित जी के व्यक्तित्व से परिचित कराया है। उन्होंने लिखा कि टीकमगढ़ निवासी पंडित ठाकुरदास जी बी. ए. का स्वर्गवास होने से निःसन्देह जैन समाज की बड़ी क्षति हुई है। वे संस्कृत, प्राकृत और हिन्दी के प्रौढ़ विद्वान तथा आध्यात्मिक रुचि के सत्पुरुष थे। श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी आपको आदर की दृष्टि से देखते थे। आपने समन्तभद्र के पाँचों मूल ग्रंथों का सम्पादन कर समन्तभारती नाम से रचना छपने हेतु नीरज जी को भेजी थी, ऐसा उनके एक पत्र से विदित हुआ है। साहू जी ने आपको रुग्णावस्था में आर्थिक सहयोग किया है जिससे उनके रोग का शमन हुआ। आपको पपौरा जी और उसके विद्यालय से बडा प्रेम था। उन्होंने मुख्तार जी को पपौरा आकर रहने की प्रेरणा की है - ऐसा इस निबन्ध से ज्ञात होता है। पंडित जी ने अन्तिम पत्र मे सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की है। मुख्तार जी की भावना रही कि वे परलोक में सुख-शान्ति रखें। 304 अन्तिम सत्रहवे निबन्ध का शीर्षक है कि दुस्सह दुःखद वियोग । इस निबन्ध में २६ जनवरी १९६६ को हुए बाबू छोटेलाल जी के निधन से उत्पन्न दुःख के कारण मुख्तार जी ने लिखा है "चित्त इतना अशान्त है कि कुछ करने - कराने को मन नहीं होता।" उन्होंने बाबू छोटेलाल जी के व्यक्तित्व को भी उजागर किया है। प्रस्तुत निबन्ध में लिखा है कि वे वीर सेवा मंदिर के बडे हितैषी रहे। उन्होंने मुख्तार जी को लिखे एक पत्र में लिखा था-' "मुझे अपने जीवन की चिन्ता नहीं है, किन्तु वीर सेवा मंदिर की बहुत चिन्ता है।" मेरी प्रबल इच्छा है कि एक बार दिल्ली हो आऊँ। इस कथन से बाबू छोटेलालजी की इच्छा, स्थिति और बेबसी का अनुमान लगाया जा सकता है। मुख्तार जी की दृष्टि में बाबू छोटेलाल जी समाज की एक बड़ी विभूति थे । निःस्वार्थ सेवाभावी थे, कर्मठ विद्वान थे, उदारचेता थे। वे प्रसिद्धि से दूर रहने वाले थे, अनेक संस्थाओ को स्वयं दान देते तथा दूसरों से दिलाते थे। वीर सेवा मंदिर के तो आप एक प्राण ही थे। आपके इस दुस्सह एवं दुःखद वियोग से उसे भारी क्षति पहुँची है, जिसकी निकट भविष्य में पूर्ति होना कठिन है। मुख्तार जी ने अपनी हार्दिक भावना व्यक्त की है कि सद्गत
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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