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________________ 292 Pandit Jugal Kishor Mukhtar “Yugveer" Personality and Achievements विचारणीय विषय यह है कि जैनियों ने दूसरों के ऊपर क्या अत्याचार किए। जैसा कि पं. मुख्तार जी ने लिखा, जैनियों ने बड़ा भारी अपराध तो यह किया कि उन्होंने दूसरों को धर्म से वंचित रखा और खुद धर्म के भंडारी बन गए। सामान्य रूप से यह देखे तो हम प. मुख्तार जी के इस विचार से सहमत नहीं हो पाते हैं। किन्तु विषय की गहराई में जाएं तो हमें उनके इस विषय से सहमत होना ही पडेगा। स्थिति तो यहाँ तक है कि जिन मन्दिरों पर बाहर बोर्ड लगा रहता है कि यह मन्दिर केवल दिगम्बर अथवा श्वेताम्बर के लिए पूजन एवं स्वाध्याय का स्थान है। अन्य लोगों के लिए प्रवेश वर्जित है। अन्य लोगों को जिन देव के दर्शनों तक से वंचित रखना जैनियों का अत्याचार नहीं तो क्या है। शायद हम इस विषय को स्वीकार न कर पायें,किन्तु हम देखते हैं कि अनेक विद्वान् या मुनि जैनियो के अलावा हुए हैं। जो जैन कुल में पैदा नहीं हुए, अधिकाश तीर्थकर तो जैन कुल में पैदा नहीं हुए, किन्तु उन्होंने जैनधर्म को स्वीकार किया, विद्वत्ता हासिल की। इससे भी जैनियों का अत्याचार समाप्त नहीं होता, यह तो जैनधर्म का प्रभाव है कि उसने, उनके सिद्धान्तों ने सहज रूप में आम लोगों को अपने वश मे कर लिया और वे सच्चे जैनी बन गए। जैनी तो यह चाहते रहे कि हम ही श्री वीर जिनेन्द्र की संपत्ति के अधिकारी बनें इस तरह मुख्तार जी विचार में जैनियों ने धर्म को अपने ठेके में लेना चाहा जो एक अत्याचार ही तो है। ऐसा पं जी ने लिखा है। जबकि जैन धर्म साफ कहता है कि समस्त जीव परस्पर समान है। जैनधर्म आत्मा का निजधर्म है, प्राणी मात्र इस धर्म का अधिकारी है। जिनवाणी के इस पवित्र आदेश को छिपाना अत्याचार ही है। दया भाव रखना जैनधर्म का मूल मंत्र है किन्तु जैनी इसका खुले आम उल्लंघन करते हैं। एक मनुष्य यदि दूसरे को लूटता है तो सामने खड़ा एक जैनी इस कृत्य को आनन्द से देखता है। क्योंकि वह पाता है कि यह अपराध मेरे साथ नहीं दूसरे के साथ हो रहा है। परन्तु प. मुख्तार जी ने अपने निबंध में ऐसे व्यक्ति को महाअपराधी कहा है। जैनी अपने आप को सुरक्षित रखने का ही उपाय खोजते हैं। उन्हें दूसरों से कोई लेना या देना नहीं। कोई मरता है तो मर जाए बस मैं, मेरी संपत्ति सुरक्षित रहे। स्वामी समन्तभद्राचार्य ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में लिखा है कि
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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