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________________ 277 प जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एव कृतित्व देव ने भी अष्टशती टीका में स्पष्ट लिखा है और श्री विद्यानन्द ने भी उसे अष्टसहस्त्री में अपनाया है। मुख्तार साहब ने विशुद्धि और संक्लेश के प्रचुरउदाहरण देते हुए विस्तृत व्याख्या की। अन्त में वे लिखते हैं कि सुख और दुःख दोनों ही चाहे स्वस्थ हो या परस्थ, अपने को हों या दूसरों के हो। कथंचित् पुण्य रूप आस्रव-बन्ध के कारण हैं विशुद्धि के अंग होने से। कथंचित् पाप रूप आत्रव-बन्ध के कारण हैं, संक्लेश का अंग होने से कथंचित् पुण्य-पाप उभयरुप आस्रव-बन्ध के कारण हैं, क्रमार्पित विशुद्धिसंक्लेश के अंग होने से, कथंचित् अव्यक्त रूप हैं क्रमार्पित विशुद्धि-संक्लेश का अंग होने से विशुद्धि और संक्लेश का अंग न होने पर दोनों ही बन्ध के कारण नहीं है। आचार्य श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार की समन्तभद्र-विचार-दीपिका के उक्त चारों ही निबन्ध आज के भी ज्वलन्त प्रश्नों का समाधान प्रस्तुत करते हैं। आम लोगों को उक्त चारों विषयों में जो भ्रान्त धारणाएं हैं वे इस पुस्तिका के पढ़ने से नष्ट हो जाएगी। उक्त चारों ही विषयों में मुख्तार साहब का मौलिक चिन्तन है, जो कि स्वामी समन्तभद्र के ग्रन्थों के उद्धरण से परिपुष्ट है। समन्तभद्र-विचार-दीपिका में मुख्तार साहब की प्रौढ़ लेखन शैली के दर्शन होते हैं। प्रत्येक वाक्य और वाक्य का प्रत्येक शब्द सार्थक है। उनकी विषय प्रतिपादन शैली बड़ी स्वाभाविक, रोचक, पूर्ण तथा उदाहरणों के द्वारा गूढतिगूढ विषय को भी सुपाच्य बना देने वाली है। भाषा में तत्सम शब्दों का बाहुल्य होने पर भी किसी प्रकार की दुर्बोधता नहीं है। विषय को स्पष्ट करने के लिए जो दृष्टान्त-उदाहरण दिए गए हैं-वे दिन प्रतिदिन व्यवहार में आने वाली वस्तुओं से ही लिए हैं। भाषा प्रसादगुणमयी तथा समास और व्यास दोनों ही शैलियों का आलम्बन लिए हुए हैं। अपने विचारों को पुष्ट तथा प्रमाणित करने के लिए लेखक पद-पद पर समन्तभद्र स्वामी के ग्रन्थों के उद्धरण प्रस्तुत करना नहीं भूलते। समन्तभद्र-विचार-दीपिका लघुकाय होती हुई भी विषय गम्भीर्य की दृष्टि से बहुत बड़ी गागर में सागर की लोकाक्ति को चरितार्थ करती है।
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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