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________________ पं जुगलकिशोर मुख्तार "बुगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व 275 के साधन जुटाने अथवा उनके लिये किसी भी तरह सुख का कारण बनने से नियमत: पुण्य होता है - पुण्य का आस्रव-बन्ध होता है। अपने को सुखदुःख देने आदि से पाप-पुण्य के बन्ध का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसके विपरीत इस विषय में दूसरों की यह एकान्त धारणा है कि अपने को दुःख देने, पहुँचाने आदि से नियमतः पुण्योंपार्जन और सुख देने आदि से नियमतः पापोपार्जन होता है- दूसरों के सुख-दुःख का पुण्य-पाप के बन्ध से कोई सम्बन्ध नहीं है। मुख्तार साहब का विचार है कि स्वामी समन्तभद्र की दृष्टि में ये दोनों ही विचार एवं पक्ष निरे एकान्तिक होने से वस्तु तत्त्व नहीं है। इसीलिए उन्होंने इन दोनों को सदोष ठहराते हुए पुण्य-पाप की जो व्यवस्था सूत्ररूप से अपने देवागम (92 से 95 ) तक में दी है वह बड़ी ही मार्मिक एवं रहस्यपूर्ण है। प्रथम पक्ष को सदोष ठहराते हुए स्वामी जी लिखते हैं पापं ध्रुवं परे दुःखात्पुण्यं च सुखतो यदि । अचेतनाऽकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ॥ यदि परमें दुःखोत्पादन से पाप का और सुखोत्पादन से पुण्य का होना निश्चित है - ऐसा एकान्त माना जाए तो फिर अचेतन पदार्थ और अकषायी ( वीतराग) जीव भी पुण्य-पाप से बंधने चाहिए। क्योंकि वे भी दूसरों में सुख-दुःख की उत्पत्ति के निमित्त कारण होते हैं। मुख्तार साहब ने अचेतन पदार्थों के सुख-दुःख में निमित्त बनते हुए दूध - मलाई और कांटे का सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत कर विषय को बहुत स्पष्ट कर दिया है। मुख्तार साहब आगे कहते हैं कि यदि यह कहा जाए कि चेतन ही बन्ध के योग्य हैं अचेतन नहीं तो फिर कषाय रहित वीतरागियों के विषय में आपत्ति को कैसे टाला जाएगा। वीतरागियों के दुःख में निमित्त कारण बनने का उदाहरण देते हुए मुख्तार साहब कहते हैं कि किसी मुमुक्षु को मुनि दीक्षा देते हैं तो अनेक सम्बन्धियों को दुःख पहुँचता है। शिष्यों तथा जनता को शिक्षा देते हैं तो उससे उन लोगों को सुख मिलता है। आगे भी वीतरागियों के सुख
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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