SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 306
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एव कृतित्व 255 स्मृति का नियंत्रण करना, नाना अवलम्बनों से हटाकर उसी में उसे रोक रखकर अन्यत्र न जाने देना ध्यान कहलाता है।" इतनी सरल व्याख्या करने के बाद भी प्राचीन शास्त्रों में अन्य प्रकार से की गई ध्यान की विवेचना को स्मरण करके मुख्तार जी लिखते हैं कि - 'अंगति जानातीत्यग्र आत्मा" इस नियुक्ति से अग्र नाम आत्मा का है, सारे तत्वों में अग्रगण्य होने से भी आत्मा को अग्र कहा जाता है। द्रव्यार्थिक नय से "एक" नाम केवल, असहाय या तथोदित (शुद्ध) का है, चिन्ता अंतःकरण की वृत्ति को और निरोध नियंत्रण तथा अभाव को भी कहते हैं । इस दृष्टि से एकमात्र शुद्ध आत्मा में चित्तवृत्ति के नियंत्रण एवं चिन्तांतर के अभाव को ध्यान कहते हैं।" फिर निष्कर्ष रूप में अपना मंतव्य भी उन्होंने व्यक्त किया कि - " ध्यान में एकाग्रता को सबसे अधिक महत्व प्राप्त है, वह व्यग्रतामय अज्ञान की निवृत्तिरूप है और उससे शक्ति केन्द्रित एवं बलवती होकर शीघ्र ही सफलता की प्राप्ति होती है।" अध्यात्म-रहस्य में द्रव्य की उत्पाद-व्यय-घ्रौव्यत्मकता को दर्शाने वाले पं. आशाधरजी के श्लोक नं. 34-35 की व्याख्या करते हुए पंडित जी ने पहले विषय को स्वर्ण और आभूषणों के प्रसिद्ध उदाहरणों से स्पष्ट किया है, फिर लिखा है कि- ". "इस तरह स्वर्ण द्रव्य अपने गुणों की दृष्टि से ध्रौव्य और पर्यायों की दृष्टि से व्यय तथा उत्पाद के रूप में लक्षित होता है। यह सब एक ही समय में घटित हो रहा है। व्यय और उत्पाद का समय यदि भिन्न-भिन्न माना जायेगा तो द्रव्य के सत्रूप की कोई व्यवस्था ही नहीं बन सकेगी, क्योंकि एक पर्याय के व्यय के समय यदि दूसरी पर्याय का आविर्भाव नहीं हो रखा है तो द्रव्य उस समय पर्याय से शून्य ठहरेगा और द्रव्य का पर्याय से शून्य होना, गुण से शून्य होने के समान उसके अस्तित्व में बाधक है। इसी से द्रव्य का लक्षण गुणपर्यायवान् भी कहा गया है, जो प्रत्येक समय उसमें पाया जाना चाहिये, एक क्षण का भी अंतर नहीं बन सकता। आत्मा भी चूंकि द्रव्य है इसलिये उसमें भी ये प्रतिक्षण पाये जाते हैं, इसमें सन्देह के लिये कोई स्थान नहीं है। " 44 भवितव्यता का आशय ठीक से समझकर अहंकार छोड़ने और कर्तव्य की प्रेरणा देने के लिये ग्रंथ के 66 नं. श्लोक में ग्रंथकार ने जो महत्वपूर्ण
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy