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________________ पं. जुगलकिशोर मुखार "युगवीर" व्यक्तित्व एव कृतित्व 245 नहीं रहता कि आपने उस समय के प्रायः सभी महत्त्व के विषयों में ग्रन्थों की रचना की है। आप असाधारण विद्वत्ता के धनी थे, सेवापरायणों में अग्रगण्य थे, महान् दार्शनिक थे, अद्वितीय वैयाकरण थे, अपूर्व वैद्य थे, धुरन्धर कवि थे, बहुत बड़े तपस्वी थे, सातिशय योगी थे और पूज्य महात्मा थे। इसी से कर्णाटक के प्रायः सभी प्राचीन कवियों ने, ईसा की ८वीं, ९वीं शताब्दियों के विद्वानों ने अपने-अपने ग्रन्थों में बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ आपका स्मरण किया है और आपकी मुक्तकण्ठ से खूब प्रशंसा की है।" ____ आचार्य पूज्यपाद के जीवन से कुछ चमत्कारिक घटनाएँ जुड़ी हुई हैं, जैसे विदेहगमन, घोर तपश्चर्यादि के कारण आँखों की ज्योति का नष्ट हो जाना तथा 'शान्त्यष्टक' के पाठ से उसकी पुनः प्राप्ति, देवताओं के द्वारा चरणों का पूजा जाना, औषधिऋद्धि की उपलब्धि, और पादस्पृष्टजल से लोहे का स्वर्ण में परिणत हो जाना। इनके विषय में मुख्तार जी ने न्याय-विशेष के आधार पर अपना मत प्रकट करते हुए कहा है कि "इनमें असम्भव कुछ भी नहीं है। महायोगियों के लिए सब कुछ शक्य है। जब तक कोई स्पष्ट बाधक प्रमाण उपस्थित न हो तब तक 'सर्वत्र बाधकाभावाद् वस्तुव्यवस्थितिः' की नीति के अनुसार इन्हें माना जा सकता है।" पितृकुल और गुरुकुल नामपरिचय, गुणपरिचय और ग्रन्थपरिचय के बाद प्रस्तावनालेखक ने पूज्यपादस्वामी के पितृकुल और गुरूकुल का पचिय दिया है। इसके भी खोत शिलालेख और ग्रन्थान्तरों में प्राप्त उल्लेख हैं। मुख्तार जी लिखते हैं "आप मूलसंघान्तर्गत नन्दिसंघ के प्रधान आचार्य थे, स्वामी समन्तभद्र के बाद हुए हैं। श्रवणबेलगोल के शिललेखों (नं. 40, 108) में समन्तभद्र के उल्लेखानन्तर 'ततः' पद देकर आपका उल्लेख किया गया है और स्वयं पूज्यपाद ने भी अपने 'जैनेन्द्र' में 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' इस सूत्र (5-4168) के द्वारा समन्तभद्र के मत का उल्लेख किया है। इससे आपका समन्तभद्र के बाद होना सुनिश्चित है। आपके एक शिष्य वज्रनन्दी ने विक्रम संवत् ५२६ में द्राविड़संघ की स्थापना की थी, जिसका उल्लेख देवसेन के 'दर्शनसार'
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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