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________________ प जुगलकिशोर मुख्तार "युगवीर" व्यक्तित्व एवं कृतित्व 103 दिखाई देते हैं। ऐसे ज्ञानी- ध्यानी-तपस्वी साधुओं की सत्संगति सदैव बनी रहे, ऐसी भावना भायी है। इनमें ज्ञानी ध्यानी-तपस्वी साधु आचार्य परमेष्ठी हैं। विशेष ज्ञानी - ध्यानी साधु उपाध्याय परमेष्ठी हैं। और साधु तो साधु परमेष्ठी हैं ही। इस प्रकार कवि ने मोह राग-द्वेष से निवृत्ति एवं स्वभाव में प्रवृत्ति हेतु पंचपरमेष्ठी की शरण ग्रहण की भावना की है। परमात्मा होने का उपाय, प्रक्रिया आत्मा का मोह - क्षोभ रहित शुद्धज्ञायक भाव ही धर्म है और धर्मस्वरूप परिणत आत्मा ही परमात्मा है। शुद्धज्ञायक भाव में कैसे प्रवृत्ति हो, इसका आध्यात्मिक एवं प्रायोगिक निरुपण कवि ने मेरी भावना के पद्य 9, 10 एवं 11 में किया है। इस सम्बन्ध में निम्न पंक्तियां माननीय हैं: पद्य 9" घर - घर चर्चा रहे धर्म की, दुष्कृत- दुष्कर हो जावे ज्ञान- चरित उन्नतकर अपना, मनुर्ज जन्म फल सब पावें । " पद्य 10 " परम- अहिंसा - धर्म जगत में फैले सर्वहित किया करें" पद्य 11 "फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर ही रहा करे - 11 वस्तु - स्वरुप - विचार खुशी से, सब दुख संकट सहा करें।' उक्त पंक्तियों के रेखाकित बिन्दुओं पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि मोहरूप आत्म- अज्ञान ही दुख- स्वरुप और दुख का कारण है। मोह का क्षय बारम्बार वस्तु-स्वरुप के विचार एवं भावना से होता है। उससे आत्मा में परमात्मा का अनुभव होता है। ऐसे व्यक्ति के हृदय में आस्तिक्य बोध के कारण जगत के जीवों के प्रति मैत्रीभाव और करुणा सहज ही उत्पन्न होती है। मोह नाश से ज्ञान स्वरुप आत्मा का ज्ञान होता है फिर ज्ञान में स्थिरता रुप चारित्र प्रकट होन लगता है जिससे वासना जन्य दुष्कृत्य स्वतः दुष्कर (कठिन) हो जाते है । मनुज जन्म की सफलता आत्मा के ज्ञान एवं चारित्र की उन्नति में है। ऐसा परम-अहिसक साधक जगत के जीवों का हित करता है ।
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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