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________________ 92 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "Yugveer" Personality and Achievements प्रणेता हो और हितोपदेशी हो, उसे बुद्ध, महावीर, जिनेन्द्र, हरिहर, विष्णु, ब्रह्मा, महेश आदि किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है। इस पद्य में कवि ने अर्हन्त - सिद्ध परमेष्ठी का स्वरूप ही निरूपित कर दिया है। दूसरे पद्य में सर्वसाधु का स्वरूप बताते हुए उनके प्रति अपनी निष्ठा प्रकट की है। आचार्य समन्तभद्र ने जो साधु का स्वरूप 'विषयाशा-वशातीतो निरारंभी परिग्रहः' आदि रत्नकरण्ड श्रावकाचार में बतलाया है। अर्थात् जिनके इन्द्रियविषय- कषायों की चाह नहीं, जो समताभाव के धारी हैं स्व-पर के कल्याण के कर्ता हैं, निःस्वार्थ सेवी तथा दूसरों के दुःख को दूर करने में तत्पर रहते हैं, वे ही सच्चे साधु हैं। तीसरे और चौथे पद्य में कवि ने पांच पापों - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के प्रति विरक्ति दर्शाते हुए अपनी भावना व्यक्त की है तथा ऐसे त्यागी साधुओं की संगति करने एवं उन्हीं के समान आचरण करने की जिज्ञासा प्रकट की है, जो इन पापों से मुक्त हो। क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायों को छोड़कर सरल और सत्य व्यवहार के द्वारा जीवन मे परोपकार करते रहने की भावना भायी है। 'मेरी भावना' के पांचवे और छठे पद्य में विश्व मैत्री का भाव प्रकट करते हुए दीन-दुखियों पर करुणाभाव, दुर्जन तथा कुमार्ग गामियों के प्रति अक्षोभ, गुणी जनों के प्रति प्रेम, तथा गुणग्रहण के भाव प्रकट किये हैं। परनिन्दा न करने तथा पराये दोष ढकने का सकल्प किया है। सांतवे तथा आठवें पद्य में कवि ने अपनी भावना प्रकट करते हुए कहा है कि मैं सदा न्याय मार्ग पर चलता रहूं, मुझे कोई बुरा कहे या अच्छा, लक्ष्मी रहे या न रहे किसी की परवाह नहीं है सुख-दुख में समता भाव रखना, इष्ट वियोग और अनिष्ट योग में सहनशीलता धारण करना ही मेरा मुख्य उद्देश्य हो। इस सम्बन्ध में निम्न पद्य चिन्तनीय है कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे लाखों वर्षों तक जीऊं या मृत्यु आज ही आ जावे ।
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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