SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 78 Pandit Jugal Kishor Mukhtar "yugveer" Personality and Achievements पिता श्री नत्थुमल जी जब अपने इस भविष्णु बालक को निहारते तो वे उसे घण्टों एकटक दृष्टि से देखते रह जाते थे। वे यह नहीं समझ पाते कि यह आकर्षण पुत्र के रूप का है या उसके आन्तरिक गुणो का। अर्थात् पिता की यह कल्पना यथार्थ भी थी क्योंकि उनका यह शिश जड़ सम्पदा नहीं, ज्ञान सम्पदा का प्रकाश अपने में समेटे हए दिव्य साहित्य सृजनहारा बनने वाला था। क्योंकि ___ "दुनियां में धन दौलत वाले तो अनेकों होते हैं। मगर 'युगवीर की तरह धर्म का प्रचार करने वाले बिरले ही होते हैं।" माता-पिता ने शिशु का नामकरण संस्कार सम्पन्न किया और नाम रक्खा जुगलकिशोर । यह नाम भी अपना महत्व स्थापित करता है। जीवन में साहित्य और इतिहास इन दोनों धाराओं का एक साथ सम्मिलन होने से यह युगल-जुगल तो है ही, पर नित्य नवीन क्रान्तिकारी विचारों का प्रसारक होने के कारण किशोर भी है। शिक्षा- बालक जुगलकिशोर अपूर्व प्रतिभा का धनी था। उसने पाँच वर्ष की उम्र में ही उर्दू-फारसी की शिक्षा प्रारम्भ कर दी। बालक सबसे बड़ा गुण था, मैं आज्ञाप्रधानी नहीं परीक्षा प्रधानी बनूंगा। अत: हर बात को तर्कणा शक्ति से बुद्धि की कसौटी पर कसकर ही ग्रहण करते थे। गुरूजन और अभिभावक उसकी तर्कणा शकित से परेशान हो जाते थे। मौलवी साहब विद्यार्थियों को बात-बात पर कहा करते थे कि क्या तुम जुगलकिशोर हो, जो इस प्रकार का तर्क कर रहे हो। विलक्षणता - बालक जुगलकिशोर की स्मरण शक्ति गजब की थी, किसी भी चीज को कंठस्थ करने में उसे महारथ हासिल थी उसने रत्नकरण्डश्रावकाचार, तत्वार्थसूत्र, भक्तामर स्तोत्र आदि ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर डाला। मकतब के मुंशी जी अन्य शिष्यों को आगाह करते रहते थे, कि अपना पाठ शीघ्र ही समाप्त करो, अन्यथा जब जुगलकिशोर जम जाएगा, तो फिर किसी को पढ़ने नहीं देगा। प्रतिभा और श्रम का ऐसा मणिकांचन संयोग क्वाचित्-कदाचित् ही दृष्टिगोचर होता है।बालक जुगलकिशोर अपने मौलवी साहब की दृष्टि में दूसरा विद्यासागर ही था, जो बिना पढ़ाये ही छोटी-छोटी पुस्तकों को चट कर जाता था।
SR No.010670
Book TitleJugalkishor Mukhtar Vyaktitva evam Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalchandra Jain, Rushabhchand Jain, Shobhalal Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year2003
Total Pages374
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy