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________________ कुटम्बमें विवाह । के पुत्र श्रीकृष्ण को-च्याही गई, और यह कितना अनर्थकारी अर्थ है इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं । इसी तरह " प्रतिपन्नस्वभगिनी " पाठ भी प्रशद्ध है । श्लोक में छठा अक्षर गरु और पहले तथा तीसरे चरण का सातवाँ अक्षर भी गरु हाता है परन्तु यहाँ उक्त पहले चरण में ६ठा और ७ याँ दोनो ही अक्षर लघ पाये जाते है और इसलिये वे इस पदके अशद्ध होने का खासा संदह उत्पन्न करते हैं। लेखकके पुस्तकालयमें इस प्रन्थकी एक जीर्ण प्रति सं.१७६५ की लिखी हुई है, उसमें “प्रतिपन्नम्बभग्नीभ्रां" ऐसा पाठ पाया जाता है। इस पाठ में "भगिनी" की जगह " भग्नी" शब्दका जो प्रयोग है वह ठीक है और उससे उक्त दोनों अक्षर, छन्दः शास्त्रकी दृटिम, गर हो जाते है परन्तु अन्तका भ्रां' अक्षर कुछ अशुद्ध जान पड़ता है और उसे अधिक अक्षर नहीं कहा जा सकता । क्योंकि उसे पृथक करके यदि “ भग्नी" का " भग्नी" प.ठ माना जाये ता उससे छंद भंग हो जाता है-पाठकी जगह सात ही अक्षर रह जाते हैं - इस लिये 'भग्नी' के बाद श्राठयाँ अक्षर पदकी विभक्तिको लिये हुए जरुर हाना चाहिय । मालूम होता है वह अतर "न्द्री" था, प्रति लेखक की कृपा से "मां" बन गया है। और इसलिये . उक्त पदका शुद्ध रूप "प्रतिपन्नम्वभग्नीन्द्रा" होना चाहिये, जिसका अर्थ हाना है अपनी बहनों में इन्द्रा पद को प्राप्त'-- अर्थात् , इन्द्राणी जैली । नेभिदत्तने अपने — नेमिपुराण में भी देवकी को सरांगणा' लिखा है जैसा कि ऊपर उधत किये * यथा:- जाके षष्ठं गमयं मर्वच लघ पंचमम् । द्विवतुष्पादयाह स्वं सप्तमं दीर्घ मन्ययोः ॥१०॥ --श्रुतबोधः ।
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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