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________________ कुटुम्बमें विवाह। गजाधरलालजी के वाक्यों को बड़ी श्रद्धाइटिसे पेश करते हुए नजर शाते हैं उन्होंने उक्त पगिडत जी की एक भी बात मानकर नदी--न तो देवकी को राजा उग्रसेनकी लड़की माना और न उग्रसेन के भाई देवसेन की पुत्री ही स्वीकार किया ! प्रन्युत इस के, जिनसेनाचार्य के कथन को छिपाने और उस पर पर्दा डालने का भरसक यत्न किया है ! इस हठ धर्मी और बेहयाईका भी क्या कहीं कुछ ठिकाना है? जान पड़ताहै विधर्मी जनोंको कुछ कहासुनीके खयालने समालोचकजीको बुरी तरह से तंग किया है और इसी से समालोचनाके पष्ट ४ पर वे लेखक पर यह प्राक्षेप करते है कि उसने--" यह नहीं विचार किया कि इस असत्य लेखके लिखने से विधर्मीजन पवित्र जैनधर्मको कितने घणा पण दृष्टि से अवलोकन करेंगे।" । महाशयजी! श्राप अत्तैनी की अपने विधर्मी जनों कीचिन्ता नकीजिये, वे सब श्राप जैसे नासमझ नहीं है जो किसी रीति-रिवाज अथवा घटना-विशेष को लेकर पवित्र धर्स से भी घणा कर बैठे, उनमें बड़े बड़े समझदार तथा न्याय-निपुण लोग मौजूद है और प्राचीन इतिहास की खोज का प्रायः सारा काम उन्हीं के द्वारा हो रहा है। उन में भी यह सब हवा निकली हुई है और वे खूब समझते हैं कि पहले जमाने में विवाहविषयक क्या कुछ नियम उपनियम थे और उनकी शकल बदल कर अब क्यासे क्या होगई है। और यदि यह मान लिया जाय कि उन में भी आप जैसी समझके कुछ लोग मौजद है तो क्या उनके लिये उनकी निःसार कहा सुनी के भय से-सत्यको छोड़ दिया जाय ? सत्य पर पर्दा डाल दिया जाय ? अथवा उसे असत्य कह डालने की धष्टता की जाय ? यह कहाँका न्याय है ? क्या यही अापका धर्म है ? ऐसी ही सत्यवादिताके आप प्रेमी है ! और उसीका आपने अपनी
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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