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________________ ----- - -- -- - विवाह-क्षेत्र प्रकाश। भी दिया है और इसी लिये उक्त श्लोकमे ' स्वीकृतवाम' से पहले 'स्त्रीरूपेण' पदकी या इसी प्राशय को लिये हुए किसी दूसरे पदके देनेको काई जरूरत नहीं थी-उसका देना व्यर्थ होता। स्वयं श्रीजिनसेनाचार्यने अन्यत्र भी, अपने हरिवंशपुराण में, 'स्वीकृत' को विवाहित (ऊढ )' अर्थ में प्रयुक्त किया है, जिसका एक स्पष्ट उदाहरण इस प्रकार है : * यागकर्मणि निवृत्ते सा कन्या राजसनुना । स्वीकृता तापसा भपं भक्तं कन्याथेमागताः॥३०॥ कौशिकायात्र तैस्तस्यां याचितायां नपोऽवदत् । कन्या सोढा कुमारेण यानेत्युक्तास्तुतं ययुः।।३१।। -२६ वाँ सर्ग। ये दोनों पद्य उस यज्ञप्रकरण के हैं जिसमें राजा अमोघदर्शन ने रंगसेना वेश्याकी पत्री 'कामपताका' वेश्या का नत्यकरोया था और जिसे देखकर कौशिक ऋषि भी क्षभित ही गये थे। इन पद्यों में बतलाया है कि 'यज्ञकर्म के समाप्त होने पर उस (कामपताका ) कन्या को राजपुत्र ( चारुचंद्र ) ने स्वीकार कर लिया । ( इसके बाद ) कुछ तापस लोग कन्या के लिये भक्त राजा के पास आए और उन्होंने 'कौशिक' के *जिनदास ब्रह्मवारीके हरिवंशपुराण में भी 'स्वीकृत' को 'ऊ' ( विवाहित ) अर्थ में प्रयुक्त किया है। यथा : ततः कदाचित्सा कन्या स्वीकृता राजलनना । तापसास्तेपिकन्यार्थ नपपावं समागताः॥३०॥ प्रार्थितायां नृपोवादीत्तस्यां सोढा विधानतः। कुमारेण ततो यूयं यात स्वस्थानमुत्सकाः॥३१॥ '-१०वां सर्ग।
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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