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________________ वेश्याओं से विवाह । ४५ (२) "असल बात यह है कि वसन्तसेना सेवा सुश्रूषा करने के लिये आई थी, और चारुदत्त ने उसे इसी रूप में अपना लिया था ।" इन में पहले वाक्य से तो अपनाने का कोई विसरश अर्थ स्पष्ट नहीं होता है। हाँ, दूसरे वाश्यसे इतना जरूर मालम होता है कि आपने वसन्तसेना का स्त्रीसे भिन्नसेवा सुश्रषा करन घाली के रूपमें अपनाने का विधान किया है अथवा यह प्रतिपादन किया है कि चारुदत्त ने उसे एक खिदमतगारनी या नौकरनी के तौर पर अपने यहां रक्खा था। परन्तु रोटी बनाने, पानी भरने, बर्तन मांजने, बुहारी देने, तैलादि मर्दन करने, नहलाने, बच्चों का खिलान या पंखा झालन श्रादि किस सेवा सुश्रूषा के काम पर वह वेश्यापुत्री रक्खी गई थी, इस का श्रापन कहीं पर भी कोई उल्लेख नहीं किया और न कहीं पर यही प्रकट किया कि चारुदत्त, अमुक अवसर पर, अपनी उस चिरसंगिनी और चिरभुक्ता वेश्या से पुन: संभोगन करने या उससे काम सेवा न लेने के लिये प्रतिज्ञावद्ध होचुकेथे अथवा उन्होंने अपनी एक स्त्रीका ही व्रत ले लिया था। यही आपकी इस आपत्तिका सारा रहस्य है, और इसके समर्थनमें आपने जिनसेनाचार्य के हरिवंशपुगणसे सिर्फ एक श्लोक उद्धृत किया है, जो आपके हो अर्थ के साथ इस प्रकार है:तांसु[ शुश्रूषाकरी[ ] स्वसूःश्वश्रवाः] आयांतेव्रत संगता। श्रुत्वा वसंतसनां च प्रतिः [पीतः ] स्वीकृतवानहम् ।।" "ब्रैकट में जो रूप दिये है वे समालोचक जी के दिये हुए उन अक्षरों के शुद्ध पाठ हे जो उन से पहले पाये जाते हैं। +इस का जगह “ सदणव्रत संगताम्" ऐसा पाठ देहली के नये मंदिर की प्रति में पाया जाता है।
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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