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________________ वेश्याओं से विवाह । सर्वथा दुर्लभ यह प्रापका पुण्यबल भी अचिन्त्य है ॥११-१२॥ विना भाग्य के ऐसा पौरुष होना अति कठिन है ऐसे उत्तमोत्तम भोगों को मनुष्यों की तो क्या बात सामान्य देव विद्याधर भी प्राप्त नहीं कर सकते"। ___ और हरिवंशपुगण के २१वें सर्ग के अन्त में श्रीजिनसेना चार्य ने चारुदतजीको भी वसुदेवकी तरह रूप और विज्ञान के सागर तथा धर्म अर्थ कामरूपी त्रिवर्ग के अनुभवी अथवा उसके अनभवसे संतुष्टचित्त प्रकट कियाहै, और इस तरह पर दोनों को एक ही विशेषणों द्वारा उल्लेखित कियाहै यथाः इत्यन्योन्यस्वरूपज्ञा रूपविज्ञानसागराः । त्रिवगानुभवप्रीताश्चारुदत्तादयः स्थिताः ॥१८॥ इन सब बातो से यह स्पष्ट जाना जाता है कि चारुदत्त अपने कुटुम्बीजनों, पुरजनों और इतरजनों में से किसी के भी द्वारा उस वक्त तिरस्कृत नहीं थे और न कोई उनके व्यक्तित्व को घणाकी दृष्टिसे देखता था। इसी से लेखक ने लिखा था कि "उस समय की जाति-बिरादरी ने चारुदत्त को जाति से च्यत अथवा बिरादरी से खारिज नहीं किया और न दुसराही उसके साथ कोई घृणाका व्यवहार किया गया।" परन्तु समा. लोचक जी अपने उक्त दूषित अनुमानके भरोसे पर इसे सफेद झूठ बतलाते है और इसलिये पाठक उक्त संपूर्ण कथन पर से उनके इस सफेद सत्य का स्वयं अनुमान कर सकते हैं और उसका मूल्य जाँच सकते हैं। अब पहिली बात पर कीगई आपत्तिको लीजिये । समालोचक जी की यह अापत्ति बड़ी ही विचित्र मालूम होती है! श्राप यहाँ तक तो मानते हैं कि चारुदत्त का बसंतसेना वेश्या के साथ एक व्यसनी जैसा सम्बन्ध था, बसन्तसेना भी
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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