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________________ ३६ विवाह क्षेत्र प्रकाश । चाहिये कि दूसरोंके धर्म-साधन में विन करना - बाधक होना, उनका मंदिर जाना बंद करके उन्हें देवदर्शन दिखे विमुख रखना, और इस तरह पर उनको आत्मोन्नति के कार्य में रुकाघट डालना बहुत बड़ा भारी पाप है। अंजना सुंदरीने अपने पूर्व जन्म में थोड़े हो कालके लिये, जिनप्रतिमाको छिपाकर, अपनी सौतन के दर्शनपूजनमें अन्तराय डाला था। जिसका परिणाम यहाँ तक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्म में २२ वर्ष तक पतिका दुःसह वियोग सहना पड़ा और अनेक संकट तथा आपदाओं का सामना करना पड़ा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीरविषेशाचार्यकृत 'पद्मपुराण' के देखने से मालूम हो सकता है। श्रोकुन्दकुन्दाचार्यने, अपने 'रयणसार ' ग्रन्थ में यह स्पष्ट बतलाया है कि- 'दूसरोंके पूजन और दानकार्य में अन्तराय (विघ्न) करने से जन्मजन्मान्तर में क्षय कुष्ठ, शूल, रक्तविकार, भगंदर, जलोदर, नेत्रपीड़ा, शिरोवेदना श्रादिक रोग तथा शीत उष्ण (सरदी गरमी ) के श्राताप और ( कुयोनियों में ) परिभ्रमण आदि अनेक दुःखोंकी प्राप्ति होती है। 'यथाखकुट्टसूलमूलो लोग भगंदरजलोदर क्खि सिरोसीदुहराई पूजादातरायकम्पफलं ॥ ३३ ॥ • इस लिये जो कोई जाति-बिरादरी अथवा पंचायत किसी जैनीका जैनमंदिरमें न जाने अथवा जिनपूजादि धर्मकार्योंसे वंचित रखने का दण्ड देती है वह अपने अधिकार का श्रतिक्रमण और उल्लंघन ही नहीं करती बल्कि घोर पापका अनुष्ठान करके स्वयं अपराधिनी बनती है । ऐसी जाति-बिरादरियों के पंचकी निरंकुशता के विरुद्ध श्राघाज उठने की ज़रूरत है और उसका वातावरण ऐसेही लेखोंके द्वारा पैदा किया जा सकता है | आजकल जैन पंचायतोंने 'जाति बहिष्कार' नामके तीक्ष्ण
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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