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________________ २० विवाह क्षेत्र प्रकाश । "इन्हीं सब बातों को लेकर एक शास्त्रीय उदाहरण के रूपमें यह नोट लिखा गया है ।" लेखकी ऐसी स्पष्ट हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि समालोचक जी ने अपने उक्त वाक्यों और उन्हीं जैसे दूसरे वाक्यों द्वारा भी पुस्तक जिस आशय, उद्देश्य, अथवा प्रतिपाद्य विषयकी घोषणा की है वह पुस्तकसे बाहर की चीज़ है - प्रकृत लेखसे उसका कोई सम्बंध नहीं है-और इस लिये उसे समालोचक द्वारा परिकल्पित श्रथवा उन्हीं की मनःप्रसूत समझना चाहिये | जान पड़ता है वे अपनी नासमझी से अथवा किसी तीव्र कषायके वशवर्ती होकर ही ऐसा करने में प्रवृत्त हुए हैं । परन्तु किसी भी कारण से सही, इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने ऐसा करके समालोचक के कर्तव्यका भारी खून किया है । समालोचक का यह धर्म नहीं है कि वह अपनी तरफसे कुछ बातें खड़ी करके उन्हें समालोच्य पुस्तककी बातें प्रकट करे, उनके आधार पर अपनी समालोचना का रंग जमाए और इस तरह पर पाठकों तथा सर्व साधारण को धोखे में डाले । यह तो महानीचातिनीच कर्म है । समालोचकका कर्तव्य है कि पुस्तक में जो बात जिसरूप से कही गई है उसे प्रायः उसी रूपमें पाठकों के सामने रक्खे और फिर उसके गुण-दोषों पर चाहे जितना विवेचन उपस्थित करें: उसे समालोच्य पुस्तक की सीमा के भीतर रहना चाहिये – उससे बाहर कदापि नहीं जाना चाहिये उसका यह अधिकार नहीं है कि जो बात पुस्तक विधिया निषेध रूप से कहीं भी नहीं कही गई उसकी भी समालोचना करे अथवा पुस्तकसे घृणा उत्पन्न कराने के लिये पुस्तकके नाम पर उसका स्वयं प्रयोग करें - उसे एक हथियार बनाए । भंगी, चनार और चांडालका नाम तकभी पुस्तक में कहीं नहीं है, फिरभी पुस्तक के नाम पर उनके विवाह
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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