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________________ विवाह-क्षेत्र प्रकाश । और कुछ भी महत्व नहीं दिया जासकता- वे आजकल प्रायः इतने ही काम के हैं-एकदेशीय, लौकिक और सामयिक ग्रन्थ होनेसे उनका शासन सार्वदेशिक और सार्वकालिक नहीं हो सकता । अर्यात, सर्व देशों और सर्व समयों के मनुष्योंके लिये वे समान रूपसे उपयोगी नहीं होसकते । और इसलिये केवल उनके आधार पर चलना कभी यक्तसंगत नहीं कहला सकता। विवाह-विषयमें श्रागमका मूल विधान सिर्फ इतना ही पाया जाता है कि वह गृहस्थाश्रम का घर्णन करते हुए गृहस्थ के लिये आम तौर पर गहिणीको अथात् एक स्त्रीकी जरूरत प्रकट करता है। वह स्त्री कैसी, किस वर्णकी, किस जातिकी, किन (कन सम्बन्धोंसे युक्त तथा रहित और किस गोत्रकी होनी चाहिये अथवा किस तरह पर और किस प्रकारके विधानों के साथ विवाह कर लानी चाहिये, इन सब बातोंमें पागम प्रायः कुछ भी हस्तक्षेप नहीं करता । ये सब विधान लोकाश्रित हैं, श्रागमसे इनका प्रायः कोई सम्बन्ध विशेष नहीं है । यह दूसरी बात है कि आगममे किसी घटना विशेषका उल्लेख करते हुए उनका उल्लेख पाजाय और तात्कालिकदृष्टिसे उन्हें अच्छा या बुरा भी बतला दिया जाय परन्तु इससे वे कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक अटल सिद्धान्त नहीं बन जाते- अथात्, एसे कोई नियम नहीं हो जाते कि जिनके अमार चलना सर्व देशों और सर्व समयों के मनुष्यों के लिए बराबर जरूरी और हितकारी हो। हाँ, इतना जरूर है कि श्रागमकी दृष्टि में सिर्फ वेही लौकिकविधियाँ अच्छी और प्रमाणिक समझी जा सकती हैं जो जैन सिद्धान्तोंके विरुद्ध न हो, अशवा जिनके कारण जैनियोंकी श्रद्धा (सम्यक्त्व) में बाधा न पड़ती हो और न उनके व्रतोंमे ही कोई दूषण लगता हो । इस दृष्टिको सुरक्षित रखते हुए, जैनी लोग प्रायः सभी लौकिक विधियोंको खुशीसे
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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