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________________ . स्वयंवर-विवाह। १४७ लिये स्वयंवरमें मुझ अविज्ञात(अशात कुलजाति अथवा अपरिचित) व्यक्तिका इस कन्याने यदि केवल सौभाग्य ही अनुभव किया है कलादिक नहीं--(और उसीको लक्ष्य करके वरमाला डाली गई है) तो उसकी इस कृतिमें प्राप लोगों को कुछ भी बोलने-या दखल देनेका ज़रा भी अधिकार नहीं है। इससे साफ जाहिर है कि वसुदेव ने इन वाक्योंको, जिनमें उक्त श्लोक भी अपने असली रूपमें शामिल है. *कोधके किसी प्रोवेशमें नहीं कहा बल्कि बड़ी शांति के साथ, दूसरोंको शांत करते हुए, इनमें स्वयंवर-विवाहकी नीतिका उल्लेख किया है। उन्होंने ये वाक्य साधुजनोंको भी लक्ष्य करके कहे है जिनके प्रति क्रोधकी कोई वजह नहीं हो सकती, और ५४ वे पद्यमें आया हुअा " स्वयंवरगतिज्ञस्य " पद इस बातको और भी साफ बतला रहा है कि इन वाक्यों द्वारा स्वयंवरकी गति, विधि अधवा नीतिका ही निर्देश किया गया है। यदि ऐसा न होता तो श्राचार्य-महोदय आगे चलकर किसी न किसी रूपमें उसका निषेध जरूर करते, परन्तु ऐसा नहीं किया गया और इस लिये यह कहना चाहिये कि श्रोजिनसेनाचार्यने स्वयंवरविवाहकी रीति नीतिका ऐसाही विधान किया है कि उसमें वरके कुलीन या अकुलीन होने का कोई नियम नहीं होता और न कुल-सौभाग्यका कोई प्रतिबध ही रहता है । अतः उक्त श्लोक को प्रमाण कहना अपनी ना समझी प्रकट करना है। विज्ञ पाठकजन, जब स्वयंवर-विवाहकी ऐसी उदारनीति है यदि क्रोधके आवेशमें कहा होता तो जिनसेनाचार्य वस्देवको 'धीर' न लिखकर 'क्रुद्ध' प्रकट करते, जैसा कि 4 वें पद्यमें उन्होंने जरासंधको प्रकट किया है । यथा : • "तच्छुत्याशु जरासंधः क्रुद्धः प्राह नृपानृपाः ।"
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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