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________________ - - - - - १३० विवाह-क्षेत्र प्रकाश। विवाह हो गया था। वह कहता है 'प्रिये ! डरे मत, मैं श्रावस्ती नगरी का इक्ष्वाकुवंशी राजा हूं और शीलायुध मेग नाम है; जब तेरे पुत्र हो तब तू पत्र सहित मेरे पास श्राइयो - अथवा मुझ से मिलियो।' वाह ! क्या अच्छा उत्तर है ! क्या अपनी पत्नी को ऐसा ही उत्तर दिया जाता है ? यदि विवाह हो चका था तो क्यों नहीं उसने दृढ़ता के साथ कहा कि मैं तुझे अभी अपने घर पर बुलाये लिये लेता हूं? क्यों तापसाश्रम में ही अपने पत्र का जन्म होने दिया ? और क्यों उसने फिर अन्त तक उसकी कोई खबर नहीं ली? यह तो उसे यहाँ तक भल गया कि जब वह मरकर देवी हुई और उसी तापसी वेप में पुत्रको लेकर शीलायुध के पास गई तो उसने उसे पहिचाना तक भी नहीं । क्या इन्हीं लक्षणों से यह जाना जाता है कि दोनों का विवाह हो गया था! और भोग से पहले पति पत्नी बनने की सब बातचीत से हो गइ थी? कभी नहीं । उत्तर से तो यह मालम होता है कि भोग से पहले शीलायधने अपना इतना भी परिचय उसे नहीं दिया कि वह कौन से वंशका और कहाँका राजा है,-इस परिचयके देनेकी भी उसे बादको ही जरूरत पड़ी-उसने तो अपने वीर्य से उत्पन्न होनेवाले पत्र की रक्षा आदिके प्रबन्धके लिये ही यह कह दिया मालूम होता है कि तुम उसे लेकर मेरे पास आजाइयो। फिर यह कैसे कहा जासकता है कि दोनों का परिचय और विवाह की बात चीत होकर भोग हुश्रा था ? यदि दोनों का गंधर्व विवाह हुआ होता तो श्रीजिनसेनाचार्य उसका उसी तरह से स्पष्ट उल्लेख करते जिस तरह से कि उन्होंने इसी प्रकरण में प्रियंगसुन्दरी के गंधर्व विवाह का उल्लेख किया है * । अस्तु: उक्त प्रश्नोत्तर यथाः-प्रियंगुसुन्दरी सौरि रहसि प्रत्यपद्यत । सा गंधर्व विवाहादि सहसन्मुखपंकजा ॥६॥
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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