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________________ विवाह-क्षेत्र-प्रकाश। मर्यादा को तोड़ने की बात आप कतई छिपा गये! अथवा यो कहिये कि, कथाका उपयुक्त सारांश देने पर भी, कथाकं अंश को छिपानेका जो इलज़ाम श्रापन लेखक पर लगाया था उसके स्वयं मुलज़िम और मुजरिम (अपराधी) बन गये । साथ ही, यह भी मालम होता है कि ३८ व पद्य में पाए हुए “अतिविधभतः”, पद का अर्थ प्रापने 'विश्वास होगया' समझा, उसे ही पति-पत्नी बनने को वार्ता होना मान लिया ! और फिर उसीको गंधर्व विवाह में घटित कर लिया !! वाह ! क्या ही अच्छा आसान नसखा आपने निकाला ! कुछ भी करना धरना न पड़े और मुफ्त में पाठकों को गंधर्व विवाह का पाठ पढ़ा दिया जाय !! महाराज! इस प्रकार की कपट-कला से कोई नतोता नहीं है । मल ग्रन्थ में अतिविधमतः' यह स्पष्ट पद है, इस में पति-पत्नी बनने की कोई बाता छिपी हुई नहीं है और न गंधर्व विवाह ही अपना मह ढाँए हुए बैठा है। 'विश्रंभ' शब्द का अर्थ, यद्यपि, विश्वास भी होता है परन्तु 'कलिकलह' (LOVE (uture) और 'प्रणय' (स्नेह ) भी उसके अर्थ है (विश्रंभः कलिकलहे, विश्वासे प्रणये वध) और ये ही अर्थ यहां पर प्रकरण संगत जान पड़ते है। ‘अति विश्वास से प्रेम ने मर्यादा तोड़ दी' यह अर्थ कुछ ठीक नहीं बैठता । हाँ, स्नेहके अतिरेकसे अथवा कंलिकलहकं बढ़नेसप्रेमप्रस्तावके लिये अधिक छेड़छाड़ हँसी मजाक और हाथा पाई के होने से प्रेम ने उनकी चिरपालित मर्यादा ताड़ दी', यह अर्थ संगत मालम होता है। परन्तु कुछ भी सही, आप अपने 'विश्वास' अर्थ पर ही विश्वास रक्ख फिर भी तो उसमें से * यह श्री हेमचन्द्र और श्रीधरसेनाचार्यों का वाक्य है। मेदिनी कोशमै भी केलिफलह' और 'पुणय' दोनों अर्थ दिये हैं ।
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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