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________________ व्यभिचारजातो और दस्सोसे विवाह । १२५ जिनसेनाचार्य के हरिवंशपराणमें उस संकल्प, ठहराव अथवा निश्चयको कहीं भी कोई उल्लेख नहीं है। भांगके पश्चात भी ऋषिदत्ता की ऐसी कोई प्रतिज्ञा नहीं पाई जाती जिससे यह मालूम होता हो कि उसने अाजन्मके लिये शीलायुधको अपना पति बनाया था। ___ समालोचक जी एक बात और भी प्रकट करतेहैं और वह यह कि ऋषिदत्ता पंचाणुव्रतधारिणीथी और 'सभ्यक्तव सहित मरी थी "इमो लिये यह बिना किसीका पति बनाये कभी काम सेवन नहीं कर सकती थी।" परन्तु सकने और न सकने का सवाल तो बहुत टेढा है। हम सिर्फ इतनाही पूछना चाहते है कि यह कहाँका और कौनसे शास्त्रका नियम है कि जो सम्यतव सहित मरण करे उसका संपूर्ण जीवन पवित्र ही रहा होउसने कभी व्यभिचार न किया हो ? किसी भी शास्त्रमें ऐसा नियम नहीं पाया जाता । और न यही देखने में आता है कि जसने एक बार अणुवत धारण कर लिये वह कभी उनसे भ्रष्ट न होसकता हो । अणुव्रतीकी तो बात ही क्या अच्छे अच्छे महावतो भो कामपिशाचक वशवर्ती होकर कभी कभी भ्रष्ट होगये है। चारुदत्त भी ता अणुव्रतो थे और श्रावकके इन व्रतोको लेनके बाद ही वेश्यासक्त हुए थे। फिर यह कैसे कहा जासकता है कि ऋषिदत्तासे व्यभिचार नहीं बन सकता था। श्रीजिनसेनाचार्यने तो साफ लिखा है कि उन दोनोंके पारस्परिक प्रेमने चिरकालकी मर्यादा को तोड़ दिया था। यथा: *शांतायधमतः श्रीमांश्रावस्तीपतिरेकदा । **जिनदास ब्रह्मचारोने, अपने हरिवंशपुराणमें, इन चारों पद्योंको जगह नीचे लिखे तीन पद्य दिये हैं : शांतायुधात्मजो जातु श्रावस्तीनगरीपतिः ।
SR No.010667
Book TitleVivah Kshetra Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJohrimal Jain Saraf
Publication Year1925
Total Pages179
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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