SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ समन्तभद्र-भारतो का० ३३ उत्पन्न होता है, क्योकि उसीसे यह धर्मों है यह धर्म है ऐसे धर्मि- धर्म - व्यवहारकी प्रवृत्ति पाई जाती है। त सकन कल्पनाओ से रहित प्रत्यक्ष के द्वारा निरश स्वलक्षणका जो प्रदशन बतलाया जाता है वह सिद्ध है, तब ऐमे अमिद्ध प्रदर्शन साधनसे उस निरश वस्तुका प्रभाव कैसे सिद्ध किया जासकता है ? ता इस बोद्ध प्रश्नका उत्तर यह है कि ) 'जो प्रत्यक्षके द्वारा निर्देशको प्राप्त ( निर्दिष्ट हानेवाला ) हो प्रत्यक्ष ज्ञानसे देखकर 'यह नीलादिक है' इस प्रकार के वचन- विना ही 1 गुली से जिसका प्रदर्शन किया जाता हो - ऐसा तत्त्व भी असिद्ध है, क्योकि जो प्रत्यक्ष कल्पक है - सभी कल्पनास रहित निर्विकल्पक है - वह दूसरो को ( सशयित - विनेयो अथवा सदिग्ध व्यक्तियोका) तत्व के बतलाने-दिखलाने मे किसी तरह भी समय नही होता है । ( इसके सिवाय) निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी असिद्ध है, क्योंकि ( किसी भी प्रमाणके द्वारा) उसका ज्ञापन अशक्य है । प्रत्यक्षप्रमाणसे तो वह इसलिये ज्ञापित नहीं किया जा सकता क्योकि वह परप्रत्यक्ष के द्वारा सवेद्य है । और अनुमान प्रमाणके द्वारा भी उसका ज्ञापन नहीं बनता, क्योकि उस प्रत्यक्षके साथ अविनाभावी लिङ्ग ( साधन ) का ज्ञान असभव है - दूमरे लाग जिन्हे लिङ्ग - लिङ्गी के सम्बन्धका ग्रहण नही हुम्रा उन्हे अनुमान के द्वारा उसे कैसे बतलाया जा सकता है ? नहीं बतलाया जा सकता। और जा स्वय प्रतिपन्न है - निर्विकल्पक प्रत्यक्ष तथा उसके अविनाभावी लिङ्गको जानता है - उसके निर्विकल्पक प्रत्यक्षका ज्ञापन करानेके लिये अनुमान निरर्थक है । समारोपादिकी-भ्रमात्पत्ति र अनुमानके द्वारा उसके व्यवच्छेदक — बात कहकर उसे सार्थक सिद्ध नही किया जा सकता, क्योकि साध्य - साधनके सम्बन्धसे जो स्वय श्रभिज्ञ है उसके तो समारोपका होना ही भव है और जो अभिज्ञ नही है उसके साध्य-साधन-सम्बन्धका ग्रहण ही सम्भव नही है, और इसलिये गृहीतकी विस्मृति जैसी कोई बात नही बन सकती । इस तरह कल्पक प्रत्यक्षमा कोई ज्ञापक न हानेसे उसकी व्यवस्था नही बनती, तब उसकी सिद्धि कैसे हा सकती है ? और -
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy