SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समन्तभद्र-भारती का०३२ होनेपर अन्त (अप्सत्य) भेदवान होता है-जैसे जिस वचनमें अभिधेय अल्प असत्य और अधिक सत्य हो उसे 'सत्याऽनत' कहते हैं, इसमे सत्य विशेषणसे अनतको भेदवान् प्रतिपादित किया जाता है। और जिस वचनका अभिधेय अल्प सत्य और अधिक असत्य हो उसे 'अनृताऽनृत' कहते हैं, इममें अनृत विशेषणसे अनृतको भेदरूप प्रतिपादित किया जाता है । आत्मभेदसें अनत भेदवान नहीं होता क्योकि सामान्य अनृतात्माके द्वारा भेद घटित नही होता । अनतका जो आत्मान्तरश्रात्मविशेष लक्षण है वह भेद-स्वभावको लिये हुए है-विशेषणके भेदसे, और सम (अभेद) स्वभावको लिये हुए है-विशेषणभेद के अभावसे । साथ ही ('च' शब्दसे) उभयस्वभावको लिये हुए हैहेतुद्वयके अर्पणाक्रमकी अपेक्षा । (इसके सिवाय) अनृतात्मा अनभिलाप्यता (श्रवक्तव्यता) को प्राप्त है-एक साथ दोनो धोका कहा जाना शक्य न होने के कारण, और (द्वितीय 'च' शब्दके प्रयोगम) भेदि अनभिलाप्य, अभेदि-अनभिलाप्य और उभय (भेदाऽदि) अनभिलाप्यरूप भी वह है-अपने अपने हेतुकी अपेक्षा । इसतरह अनतात्मा अनेकान्तदृष्टिसे भेदाऽभेदकी सप्तभंगीको लिये हुए है।' न मच्च नाऽमच्च न दृष्टमेकमात्मान्तरं सर्व-निषेध-गम्यम् । दृष्ट विमिथ तदुपाधि-भेदात् स्वप्नेऽपि नैतत्वषः परेषाम् ॥३२॥ 'तत्त्व न तो सन्मात्र-सत्ताद्वैतरूप - है और न असन्मात्रसर्वथा अभावरूप-है, क्योंकि परस्पर निरक्षेप सत्तत्व और असत्तत्त्व दिखाई नही पडता-किसी भी प्रमाणसे उपलब्ध न होनेके कारण उसका होना असम्भव है। इसी तरह (सत् असत्, एक, अने. कादि) सर्वधर्मोके निषेधका विषयभूत कोई एक आत्मान्तर--
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy