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________________ प्राकथन समय उन्हें 'आत्मशिश्नोदरपुष्टितुष्ट' ( स्वार्थी, काम और उदर पोषणमें मस्त) और 'निहींभया ( भय और लोकलाजसे रहित) विशेषण दिया है। पर वस्तुतः देखा जाय तो यज्ञजीवी और धर्महिंसी लोग इन विशेषणोंके सर्वथा उपयुक्त हैं। भगवान्के सर्वोदय शासनमे प्रत्येक प्राणी को धर्मके सब अवसर हैं, सभी द्वार उन्मुक्त हैं। मनुष्य बिना किसी जाति, पाति, वर्ण, रंग या कुल आदिके भेदके अपनी भावनाके अनुसार धर्मसाधन कर सकता है। ____ श्रमण महाप्रभुने अहिंसाकी चरम साधनाके बाद यह स्पष्ट देखा कि जब तक अहिंसाका तत्त्वज्ञान हदभूमि पर नहीं होगा तब तक बुद्धिविलासी व्यक्ति श्रद्धापूर्वक दीर्घकाल तक इसको उपासना नहीं कर सकते । खासकर उस वातावरणमें जहां 'सत्, असत्, उमय अनुभय' 'नित्य, अनित्य, उभय, अनुभय' आदि चतुष्कोटियोंकी चरचा चौराहों पर होती रहती हो। विविध विचारके बुद्धिमान प्राणी प्रभुके संघमे उनकी अलौकिक वृत्तिसे प्रभावित होकर दीक्षित होने लगे, पर उनकी वस्तुतत्त्वके बोधकी जिज्ञासा बराबर बनी ही रही। उनकी साधनामे यह जिज्ञासा पक्षमोहकी आकुलता उत्पन्न करने के कारण महान कटक थी। इसकी शान्तिके बिना निराकुल और निविकल्प समता पाना कठिन था। खास कर उस समय जब भिक्षाके लिये जाते समय गली कूचोंमे भी शास्त्रार्थ हो जाते थे। संघमें भी तत्त्वज्ञानकी दृढ और स्पष्ट भूमिकाके बिना मानस शान्ति पाना कठिन ही था। प्रभुने अपने निरावरण ज्ञाननेत्रोंसे देखा कि इस विराट् विश्वका प्रत्येक चेतन और अचेतन अणु-परमाणु अनन्त धर्मोका वास्तविक आधार है। सांसारिक जीवोंका ज्ञानलव उसके एक एक अंशको छूकर ही परिसमाप्त हो जाता है, पर यह अहंकारी उस ज्ञान-लवको ही 'महान्। मानकर मद-मत्त हो जाता है और दूसरेके ज्ञानको तुच्छ मान बैठता है। प्रभुने कहा-प्रत्येक वस्तु अनन्तधर्मोका अखण्ड पिंड और अञ्चत जीवोंका ज्ञानलह अहंकारी सरक ज्ञानको अखण्ड पिड
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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