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________________ २२ समन्तभद्र- भारता का० १८ एक 'लोकसवृति सत्य' और दूसरा 'परमार्थ सत्य'' तो यह विभाग भी विकल्पमात्र होनेसे तात्त्विक नहीं बनता । सम्पूर्ण विकल्पोसे रहित स्वलक्षणमात्र विषया बुद्धिको जो तात्त्विकी कहा जाता है वह भी सम्भव नही हो सकतो, क्योकि उसके इन्द्रियप्रत्यक्ष-लक्षणा, मानसप्रत्यक्षलक्षणा, स्वसवेदनप्रत्यक्ष लक्षणा और योगिप्रत्यक्ष लक्षणा ऐसे चार भेद माने गये है, जिनकी परमार्थसे कोई व्यवस्था नहीं बन सकती । प्रत्यक्ष - सामान्य और प्रत्यक्ष-विशेपका लक्षण भी विकल्पमात्र होनेसे वास्तविक ठहरता है । और वास्तविक लक्षण वस्तुभूत लक्ष्यको लक्षित करनेके लिये समर्थ नही I है । क्योकि इससे 'अतिप्रसङ्ग' दोष आता है, तब किसको किससे लक्षित किया जायगा ? किसीको भी किसी से लक्षित नही किया जा सकता ।' श्रनर्थिका साधन - साध्य धीश्चेद्विज्ञानमात्रस्य न हेतु - सिद्धिः । अथाऽर्थवत्वं व्यभिचार - दोषो न योगि- गम्यं परवादि - सिद्धम् ॥ १८ ॥ ' (यदि यह कहा जाय कि ऐसी कोई बुद्धि नही है जो बाह्य स्वलक्षणके श्रालम्बनमे कल्पना से रहित हो, क्योकि स्वप्नबुद्धिकी तरह समस्त बुद्धिसमूह के त्रालम्बनमे भ्रान्तपना होनेसे कल्पना करनी पडती है, अत अपने शमात्ररूप तक सीमित विषय होनेसे विज्ञान - मात्र तत्त्वकी ही प्रसिद्धि होती है उसीको मानना चाहिये । इसपर यह प्रश्न पैदा होता है कि विज्ञानमात्रकी सिद्धि ससाधना है या निःसाधना ? यदि ससाधना है तो साध्य - साधनकी बुद्धि सिद्ध हुई, विज्ञान - मात्रता न रही। और यदि साध्यसाधनकी बुद्धिका नाम ही विज्ञान मात्रता है तो फिर यह प्रश्न पैदा होता बुद्धि का है या अर्थवती १) यदि साध्य साधनकी बुद्धि अनर्थका है - उसका कोई अर्थ नही - तो विज्ञानमात्र तत्त्व१ " हे सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धाना धर्म देशना | लोकसवृतिसत्य च सत्य च परमार्थत ॥"
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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