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________________ १३ समन्तभद्र-भारती का० १० 'नित्य आत्मा देहसे ( सर्वथा ) अभिन्न है या भिन्न इस कल्पनाके होनेसे (और अभिन्नत्व तथा भिन्नत्व दोनोमेसे किसी एक भी विकल्पके निर्दोष सिद्ध न हो सकनेसे' ) जिन्होंने आत्मतत्त्वको 'अवक्तव्य'-वचनके अगोचर अथवा अनिर्वचनीय-माना है उनके मतमे आत्मतत्त्व अनवधार्य (अजय) तत्त्व हो जाता है-प्रमेय नही रहता। और आत्मतत्त्वके अनवधार्य (अप्रमेय) होने पर तथा प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणका विषय न रहनेपर बन्ध और मोक्षकी कौनसो स्थिति बन सकती है ? बन्ध्या-पुत्रकी तरह कोई भी स्थिति नही बन सकती-न बन्ध व्यवस्थित होता है और न मोक्ष। और इसलिये बन्धमोक्षकी सारी चर्चा व्यर्थ ठहरती है।' १ देहसे प्रात्माको सर्वथा अभिन्न माननेपर ससारके अभावका प्रसग आता है, क्योकि देह रूपादिककी तरह देहात्मक आत्माका भवान्तरगमन तब बन नहीं सकता और इसलिये उसी भवमे उसका विनाश ठहरता है, विनाशका नित्यत्वके साथ विरोध होनेसे आत्मा नित्य नहीं रहता और चाचोकमतके श्राश्रयका प्रसग पाता है, जो आत्मतत्त्वको भिन्नतत्त्व न मानकर पृथिवी श्रादि भूतचतुष्कका ही विकार अथवा कार्य मानता है और जो प्रमाण विरुद्ध है तथा आत्मतत्ववादियोको इष्ट नहीं है। और देहसे श्रात्माको सर्वथा भिन्न माननेपर देहके उपकारअपकारसे आत्माके सुख-दु ख नहीं बनते सुख-दुख का अभाव होनपर राग द्वेष नहीं बन सकते और राग-द्वेषके अभावमे धर्म अधर्म सम्भव नहीं हो सकते । अत 'स्वदेहमे अनुरागका सद्भाव होनेसे उसके उप. कार-प्रपकारके द्वारा आत्माके सुख-दुख उसी तरह उत्पन्न होते हैं जिस तरह स्वगृहादिके उपकार-अपकारसे उत्पन्न होते हैं। यह बात कैसे बन सकती है ? नही बन सकती। इस तरह दोनो ही विकल्प सदोष ठहरते हैं।
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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