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________________ समन्तभद्र-भारती का०६ ( यदि यह कहा जाय कि आस्मादि नित्य द्रव्योमे स्वभावसे ही विकार सिद्ध है अत. कारकव्यापार, कार्य और कार्ययुक्ति सब ठीक घटित होते है, और इस तरह सकल दोष असभव ठहरते हैं-कोई भी दोषापत्ति नही बन सकती, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि वह स्वभाव विना किसी हेतुके ही प्रथित ( प्रसिद्ध ) है अथवा आबाल-सिद्धिसे विविधार्थ-सिद्धिके रूपमे प्रथित है ? (उत्तरमे) यदि यह कहा जाय कि नित्य पदार्थोमें विकारी होनेका स्वभाव विना किसी हेतुके ही प्रथित है तो ऐसी दशामे क्रिया और कारकका विभ्रम ठहरता है-स्वभावसे ही पदाथोका ज्ञान तथा आविर्भाव होनेसे ज्ञप्ति तथा उत्पत्तिरूप जो प्रतीयमान क्रिया है उसके भ्रान्तिरूप होने का प्रमग आता है, अन्यथा स्वभावके निर्हेतुकत्वकी सिद्धि नहीं बनती। और क्रियाके विभ्रमसे प्रतिभासमान कारक-समूह भी विभ्रमरूप हो जाता है, क्योकि क्रियाविशिष्ट द्रव्यका नाम 'कारका प्रसिद्ध है, क्रियासे कारककी उत्पत्ति नहीं। और स्वभाववादीके द्वारा क्रिया कारकका विभ्रम मान्य नहीं किया जा सकता-विभ्रमकी मान्यतापर वादान्तरका प्रसग आता है-सर्वथा स्वभाववाद स्थिर न रहकर एक नया विभ्रमवाद और खड़ा हो जाता है । परन्तु (हे वीरजिन I ) क्या आपसेआपके स्याद्वाद-शासनसे-द्वेष रखनेवालेके यहाँ यह वादान्तर बनता है ?-नही बनता, क्योकि 'सब कुछ विभ्रम है' ऐसा एकान्तरूप वादान्तर स्वीकार करनेपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस विभ्रममें अविभ्रमअभ्रान्ति है या वह भी विभ्रम-भ्रान्तिरूप है ? यदि अविभ्रम है तो विभ्रमएकान्त न रहा-अविभ्रम भी कोई पदार्थ ठहरा। और यदि विभ्रममे भी विभ्रम है तो सर्वत्र अभ्रान्तिकी सिद्धि हुई, क्योकि विभ्रममें विभ्रम होनेसे वास्तविक स्वरूपकी प्रतिष्ठा होती है । और ऐसी हालतमे स्वभावके निर्हेतुकत्वकी सिद्धि नहीं हो सकती।' _ 'यदि यह कहा जाय कि ( विना किसी हेतुके नही किन्तु ) आबालसिद्धिरूप हेतुसे विविधार्थकी-सर्वथा नित्य पदाशीमे विक्रिया तथा कारक-व्यापारादिकी-सिद्धिके रूपमे स्वभाव प्रथित (प्रसिद्ध ) है
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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