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________________ प्राक्कथन युगप्रधान सर्वतोभद्र आचार्य समन्तभद्र स्याद्वाद - विद्याके सञ्जीवक और प्राण प्रतिष्ठापक थे । उन्हीने सर्वप्रथम भ० महावीरके तीर्थको 'सर्वोदय' तीर्थ कहा । वे कहते हैं - हे भगवन्, आपका अनेकान्त तीर्थ' ही 'सर्वोदय - तीर्थ' हो सकता है, क्योंकि इसमे मुख्य और गौण भावसे वस्तुका अनेकधर्मात्मक स्वरूप सघ जाता है । यदि एक दृष्टि दूसरी दृष्टिसे निरपेक्ष हो जाती है तो वस्तु सर्वधर्म - रहित शून्य ही हो जायगी । और चूंकि वस्तुका विविध धर्ममय रूप se अनेकान्तकी दृष्टिसे सिद्ध होता है अतः यही समस्त आपदाओंका नाश करनेवाला और स्वयं अन्तरहित सर्वोदयकारी तीर्थ बन सकता है-सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ ६१॥ किसी भी तीर्थके सर्वोदयी होनेके लिये आवश्यक है किउसका आधार समता और अहिसा हो, अहङ्कार और पक्षमोह "नही । भगवान् महावीरका अनेकान्त दर्शन उनकी जीवन्त अहिंसाका ही अमृतमय फल है। हिंसा और सघर्षका मूलकारण विचारभेद होता है । जब अहिंसामूर्त्ति कुमार सिद्धार्थ प्रत्रजित हुए और उनने जगत्की विषमता और अनन्त दु.खोंका मूल खोजने के लिये बारह वर्ष की सुदीर्घ साधना की और अपनी कठिन तपस्याके बाद केवलज्ञान प्राप्त किया तब उन्हें स्पष्ट भास हुआ कि यह मानवतनधारी अपने स्वरूप और अधिकारके अज्ञानके कारण स्वयं दुःखी हो रहा है और दूसरोंके लिये दुःखमय परिस्थितियोंका निर्माण
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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