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________________ विषय-सूची ४७ जो पद एवकारसे विशिष्ट है वह अस्मार्थसे स्वार्थको जैसे अलग करता है वैसे सब स्वार्थपर्यायो-सामान्यो तथा स्वार्थ विशेषोको भी अलग करता है और इससे विरोधी की तरह प्रकृत पदार्थकी भी हानि ठहरती है। ५३ ४८ जो पद एवकारसे युक्त नहीं वह अनुक्ततुल्य है, व्यावृत्ति का अभावादि उसके कारण और उनका स्पष्टीकरण । ५४ ४६ जो प्रतियोगीसे रहित है वह आत्महीन होता है अपने स्वरूपका प्रतिष्ठापक नहीं हो सकता। ५४ ५० यदि अद्वैतवादियो और शून्यवादियोकी मान्यतानुसार पदको अपने प्रतियोगी पदके साथ सर्वथा अभेदी कहा जाय तो यह कथन विरोधी है अथवा इससे उक्त पदका अभिधेय आत्महीन ही नहीं किन्तु विरोधी भी हो जाता है। ५१ विरोधी धर्मका द्योतक 'स्यात्' शब्द है, जो गौणरूपसे उसका द्योतन करता है और विपक्षभूत धर्मकी सन्धिरूप होता है, दोनो धर्मो मे अङ्गपना है और स्यात्पद उन्हे जोड़नेवाला है। ... ५२ सर्वथा अवाच्यता प्रायस ( मोक्ष ) अथवा आत्महितके लोपकी कारण है। ५३ शास्त्रमे और लोकमे जो स्यात्पदका अप्रयोग है उसका कारण उस प्रकारका प्रतिज्ञाशय है अथवा स्याद्वादियोके यहा प्रतिषेधकी युक्ति सामर्थ्यसे ही घटित हो जाती है। ५८ ५४ वीरजिनकी अनेकान्तदृष्टि एकान्तवाढियोके द्वारा बाधि त न होनेवाली तथा उनके मान्य सिद्धान्तोको बाधा पहुंचानेवाली है। ५५ विधि, निषेध और अवक्तव्यतादिरूप सात विकल्प (सप्तभङ्ग) संपूर्ण जीवादितत्त्वार्थ-पर्यायोमे घटित होते
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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