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________________ समन्तभद्र-परिचय गौरवके साथ किया है, यही कारण है कि श्रीजिनसेनाचार्य समन्तभद्रके वचनोको वीरभगवानके वचनोके समान प्रकाशमान (प्रभावादिसे युक्त) बतला रहे है । और शिवकोटि आचार्यने रत्नमालामे, 'जिनराजोधच्छासनाम्बुधिचन्द्रमा' पदके द्वारा समंतभद्रको भगवान महावीरके ऊँचे उठते हुए शासन-समुद्रको बढाने वाला चन्द्रमा लिखा है अर्थातू यह प्रकट किया है कि समन्तभद्रके उदयका निमित्त पाकर वीरभगवानका तीर्थसमुद्र खूब वृद्धिको प्राप्त हुआ है और उसका प्रभाव सर्वत्र फैला है। इसके सिवाय, अकलङ्कदेवसे भी पूर्ववर्ती महान विद्वानाचार्य श्रीसिद्धसेनने, 'स्वयम्भूस्तुति' नामकी प्रथम द्वात्रिशिकामे, अनेन सर्वज्ञ-परीक्षण-क्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवा. .स्थिता'-जैसे वाक्यके द्वारा समन्तभद्रका 'सर्वज्ञपरिक्षणक्षम' (सर्वज्ञ प्राप्तकी परीक्षा करनेमे समर्थ पुरुष) के रूपमे उल्लेख करते हुए और उन्हे बडे प्रसन्नचित्तसे वीरभगवानमे स्थित हुआ बतलाते हुए, अगले एक पद्यमे वीरके उस यशकी मात्राका बड़े ही गौरवके साथ उल्लेख किया है जो उन 'अलब्धनिष्ठ' और 'प्रसमिद्धचेता' विशेषणोके पात्र समन्तभद्र जैसे प्रशिष्योके द्वारा प्रथित किया गया है। अब मैं, संक्षेपमे ही इतना और बतला देना चाहता हूँ कि १ 'वच. समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ।'-हरिवशपुराण २ अनब्धनिष्ठा' प्रसमिद्धचेतसस्तव प्रशिष्या प्रथयन्ति यद्यशः। न तावदायेकसमूह-सहता प्रकाशयेयुः परवाटिपार्थिवाः ॥ १५ ॥ सिद्धसेन-द्वारा समन्तभद्रके इस उल्लेखका विशेष परिचय प्राप्त करनेके लिये देखो, 'पुरातन-जैनवाक्य-सूची' की प्रस्तावनामे प्रकाशित 'सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन' नामका वृहत् निबन्ध पृ० १५४ ।
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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