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________________ ४० युक्त्यनुशासन को, निष्पक्षदृष्टिसे, स्व-पर-सिद्धान्तोपर खुला विचार करनेका पूरा अवसर देते थे। उनकी सदैव यह घोषणा रहती थी कि किसी भी वस्तुको एक ही पहलूसे-एक ही ओरसे-मत देखा, उसे सब ओरसे और सब पहलुओसे देखना चाहिये, तभी उसका यथार्थज्ञान हो सकेगा। प्रत्येक वस्तुमे अनेक धर्म अथवा अङ्ग होते है-इसीसे वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसके किसी एक धर्म या अङ्गको लेकर सर्वथा उसी रूपसे वस्तुका प्रतिपादन करना 'एकान्त' है और यह एकान्तवाद मिथ्या है, कदाग्रह है, तत्त्वज्ञानका विरोधी है, अधर्म है और अन्याय है । स्याद्वादन्याय इसी एकान्तवादका निषेध करता है-सर्वथा सत्-असत्-एक अनेक-नित्य-अनित्यादि संम्पूर्ण एकान्तोसे विपक्षीभूत अनेकान्ततत्त्व ही उसका विषय है। ___ अपनी घोषणाके अनुसार, समन्तभद्र प्रत्येक विषयके गुण दोषोको स्याद्वाद-न्यायकी कसौटी पर कसकर विद्वानोके सामने रखते थे, वे उन्हे बतलाते थे कि एक ही वस्तुतत्त्वमे अमुक अमुक एकान्तपक्षोके माननेसे क्या क्या अनिवार्य दोष आते है और वे दोष स्याद्वाद न्यायको स्वीकर करनेपर अथवा अनेकान्तवादके प्रभावसे किस प्रकार दूर हो जाते है और किस तरहपर वस्तुतत्त्वका सामंजस्य ठीक बैठ जाता है। उनके समझानेमे दूसरोके प्रति तिरस्कार का कोई भाव नहीं होता था। वे एक मार्ग भूले हुए को मार्ग दिखानेकी तरह प्रेमके साथ उन्हे उनकी त्रुटियोका बोध १ सर्वथासदसदेकानेक-नित्यादि सकलैकान -प्रत्यनीकाऽनेकान्त-तत्वविषयः स्याद्वादः । -देवागमबृत्तिः । २ इस विषयका अच्छा अनुभव प्राप्त करनेके लिये समन्तभद्रका 'देवागम' ग्रन्य देखना चाहिये जिसे आत्ममीमासा' भी कहते है।
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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