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________________ युक्त्यनुशासन अथवा यों कहिये कि यह सब अन्त:करणकी पवित्रता तथा चरित्र की शुद्धताको लिये हुए उनके वचनोका ही महात्म्य है जो वे दूसरो पर अपना इस प्रकार सिक्का जमासके है। समन्तभद्र की जो कुछ भी वचन-प्रवृत्ति होती थी वह सब प्रायः दूसरोकी हितकामनाको ही साथमे लिये हुए होती थी। उसमे उनके लौकिक स्वार्थकी अथवा अपने अहकारको पुष्ट करने और दूसरोको नीचा दिखाने रूप कुत्सित भावनाकी गन्ध तक भी नही रहती थी। वे स्वयं सन्मार्गपर आरूढ थे और चाहते थे कि दूसरे लोग भी सन्मार्गको पहिचाने और उसपर चलना आरम्भ करे । साथ ही, उन्हें दूसरोको कुमार्गमे फंसा हुआ देखकर बडा ही खेद तथा कष्ट होता था । और इमलिये उनका वाकप्रयत्न सदा उनकी इच्छा के अनुकूल ही रहता था और वे उसके द्वारा ऐसे लोगोके उद्धारका अपनी शक्तिभर प्रयत्न किया करते थे। ऐसा मालूम होता है कि स्वात्म-हित-साधनके बाद दूसरोका हित १ अापके इस खेदादिको प्रकट करने वाले तीन पय, नमूने के तौर पर इस प्रकार हैमद्याङ्गवद्भूतसमागमे ज्ञ शक्त्यन्तरव्यक्तिरदेवसृष्टिः। इत्यात्मशिश्नोदरपुष्टितुष्टै निहींभय हा मृदवः प्रलब्धा. ॥३५॥ दृष्टेऽविशिष्टे जननादिहेतौ विशिष्टता का प्रतिसत्वमेषाम् । स्वभावत. किं न परस्य सिद्धिरतावकानामपि हा प्रपात ॥३६॥ स्वच्छन्दवृत्तेजगत स्वभावादुच्चैरनाचारपथेष्वदोषम । निघुष्य दीक्षासममक्तिमानास्त्वदृष्टिबाह्या बत विभ्रमन्ति ।३७ -युक्त्यनुशासन इन पद्यो का आशय उस अनुवादादिक परसे जानना चाहिये जो ग्रन्थमे आठ पृष्ठो पर दिया है।
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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