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________________ का०५६ युक्त यनुशासन मान्यकी अथवा द्रव्यत्वादि-सामान्यकी सिद्धि होती है। और इसीलिए उस सामान्यके सामान्य-विशेषाख्यत्वकी व्यवस्थापना होती है।' ___ 'यदि इसके विपरीत अन्वयहीन व्यावृत्तिसे साध्य जो सामान्य उसको सिद्ध माना जाय तो वह भी नही बनता-क्योकि सर्वथा अन्वयरहित अतव्यावृत्ति-प्रत्ययसे अन्यापोहकी सिद्धि होनेपर भी उसकी विधिकी असिद्धि होनेसे—उस अर्थक्रियारूप सात्यकी सिद्धिके अभावसेउसमे प्रवृत्तिका विरोध होता है-वह नहीं बनती। और यह कहना भी नही बनता कि दृश्य और विकल्प्य दोनोके एकत्वाऽध्यवसायसे प्रवृत्तिके होनेपर साध्यकी सिद्धि हाती है, क्योकि दृश्य और विकल्प्यका एकत्वाध्यवसाय असम्भव है । दर्शन उस एकत्वका अध्यवसाय नहीं करता, क्योकि विकल्प्य उसका विषय नहीं है । दर्शनकी पीठपर होनेवाला विकल्प भी उस एकत्वका अध्यवसाय नहीं करता, क्योकि दृश्य विकल्पका विषय नहीं है और दोनोको विषय करनेवाला कोई ज्ञानान्तर सम्भव नहीं है, जिससे उनका एकत्वाध्यवसाय हो सके और एकत्वाध्यवसायके कारण अन्वयहीन व्यावृत्तिमात्रसे अन्यापोहरूप सामान्यकी सिद्धि बन सके । इस तरह स्वलक्षणरूप साध्यकी सिद्धि नही बनती।' _ 'यदि यह कहा जाय कि अन्वय और व्यावृत्ति दोनोंसे हीन जो अद्वितयरूप हेतु है उससे सन्मात्रका प्रतिभासन होनेसे सत्ताद्वैतरूप सामान्यकी सिद्धि होती है, तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि सर्वथा अद्वितयकी मान्यतापर साध्य-साधनकी भेदसिद्धि नहीं बनती और भेदकी सिद्धि न होनेपर साधनसे-साध्यकी सिद्धि नही बनतो और साधनसे साध्यकी सिद्धिके न होनेपर अद्वितय-हेतु विरुद्ध पडता है।' ___'यदि अद्वितयको सवित्तिमात्रके रूपमे मानकर असाधनव्यावृत्तिसे साधनको और असाध्यव्यावृत्तिसे साध्यको अतव्युदासाभिनिवेशवादके रूपमें आश्रित किया जाय तब भी ( बौद्धोके मत में ) पराभ्यपेतार्थ के विरोधवादका प्रसङ्ग आता है, अर्थात् बौद्धोके
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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