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________________ का०५४ युक्तयनुशासन क्योकि सामान्यके अद्रव्यपना है तथा सयोगका अनाश्रयपना है और सयोगके द्रव्याश्रयपना है। ऐसी हालतमे सामान्यकी द्रव्यादिकमे वृत्ति नही बन सकती।' ____ 'यदि सामान्यको द्रव्यादिवस्तुके साथ वृत्ति मानी भी जाय तो वह वृत्ति भी न तो सामान्यको कृत्स्न ( निरश ) विकल्परूप मानकर बनती है और न अ शविकल्परूप। क्योंकि अशकल्पनासे रहित कृत्स्न विकल्परूप सामान्यकी देश और कालसे भिन्न व्यक्तियोमे युगपत्वत्ति सिद्ध नहीं की जासकती । उससे अनेक सामान्योंकी मान्यताका प्रसग अाता है, जो उक्त सिद्धान्तमान्यताके साथ माने नहीं गये है, क्योकि एक तथा अनशरूप सामान्यका उन सबके साथ युगपत् योग नहीं बनता। यदि यह कहा जाय कि सामान्य भिन्न देश और कालके व्यक्तियोके साथ युगपत् सम्बन्धवान् है, क्योकि वह सर्वगत, नित्य और अमूर्त है, जैसे कि आकाश, तो यह अनुमान भी ठीक नहीं है। इससे एक तो साधन इष्टका विघातक हो जाता है अर्थात् जिस प्रकार वह भिन्न देश-कालके व्यक्तियाके साथ सम्बन्धिपनको सिद्ध करता है उसी प्रकार यह सामान्यके अाकाशकी तरह साशपनको भी सिद्ध करता है जोकि इष्ट नहीं है, क्योकि सामान्यको निरश माना गया है। दूसरे, सामान्यके निरश होनेपर उसका युगपत् सर्वगत होना उसी प्रकार विरुद्ध पड़ता है जिस प्रकार कि एक परमाणुका युगपत् सर्वगत होना विरुद्ध है, और इससे उक्त हेतु (साधन) असिद्ध है तथा असिद्ध-हेतुके कारण कृत्स्नविकल्परूप (निरश ) सामान्यका सर्वगत होना प्रमाणसिद्ध नहीं ठहरता।' __(यदि यह कहा जाय कि सत्तारूप महासामान्य तो पूरा सर्वगत सिद्ध ही है, क्योकि वह सर्वत्र सत्प्रत्ययका हेतु है, तो यह ठीक नहीं है, कारण ? ) जो अनन्त व्यक्तियोंके समाश्रयरूप है उस एक (सत्तामहासामान्य) के ग्राहक प्रमाणका अभाव है क्योकि अनन्त सद्व्यक्तियोके ग्रहण विना उसके विषयमे युगपत् सत् इस ज्ञानकी उत्पत्ति असर्वशो (छद्मस्थो) के नहीं बन सकती, जिससे सर्वत्र सत्प्रत्ययहेतुत्वकी
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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