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________________ समन्तभद्र-भारती का०४८ _ 'प्रत्यक्ष और आगमसे अविरोधरूप-अबाधित-विषयस्वरूपअर्थका जो अर्थसे प्ररूपण है-अन्यथानुपपत्येकलक्षण साधनरूप अर्थसे साध्यरूप अर्थका प्रतिपादन है-उसे युक्तयनुशासन-युक्तिवचन-कहते हैं और वही (हे वीर भगवान् । ) आपको अभिमत है।' (यहाँ आपके ही मतानुसार युक्तयनुशासनका एक उदाहरण दिया जाता है और वह यह है कि ) अर्थका रूप प्रतिक्षण (प्रत्येक समय मे) 'स्थिति (ब्रौव्य ) उदय ( उत्पाद ) और व्यय (नाश ) रूप तत्त्वव्यवस्थाको लिये हुए है, क्योकि वह सत् है।' (इस युक्तयनुशासन मे जो पक्ष है वह प्रत्यक्षके विरुद्ध नही है, क्योकि अर्थका ब्रौव्योत्पादव्ययात्मक रूप जिस प्रकार बाह्य घादिक पदार्थोंमे अनुभव किया जाता है उसी तरह आत्मादि प्राभ्यन्तर पदार्थोंमे भी उसका साक्षात् अनुभव होता है । उत्पादमात्र तथा व्ययमात्रकी तरह स्थितिमात्रका-सर्वथा ब्रौव्यका-सर्वत्र अथवा कही भी साक्षात्कार नही होता । और अर्थके इस ध्रौव्योत्पादव्ययात्मक रूपका अनुभव, बाधक प्रमाणका अभाव सुनिश्चित होनेसे, अनुपपन्न नहीं है-उपपन्न है, क्योकि कालान्तरमें ब्रौव्योत्पादव्ययका दर्शन होनेसे उसकी प्रतीति सिद्ध होती है, अन्यथा खर-विषाणादिकी तरह एक बार भी उसका योग नहीं बनता । अतः प्रत्यक्ष विरोध नही है । आगम-विराध भी इस युक्तयनुशासनके साथ घटित नही हो सकता, क्योंकि 'उत्पादव्यय-प्रौव्य-युक्त सत्' यह परमागमवचन प्रसिद्ध है-सर्वथा एकान्तरूप पागम दृष्ट ( प्रत्यक्ष ) तथा इष्ट ( अनुमान ) के विरुद्ध अर्थका अभिधायी होनेसे ठग-पुरुषके वचनकी तरह प्रसिद्ध अथवा प्रमाण नही है। और इसलिये पक्ष निर्दोष है । इसी तरह सत्रूप साधन भी असिद्धादि दोषोसे रहित है। अतः 'अर्थका रूप प्रतिक्षण ध्रौव्योत्पादव्ययात्मक है सत् होनेसे,' यह युक्तयनुशासनका उदाहरण समीचीन है।)
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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