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________________ का० ४० युक्तयनुशासन सामान्य निष्ठा विविधा विशेषाः पदं विशेषान्तर- पक्षपाति । अन्तर्विशेषान्त-वृत्तितोऽन्यत्समानभावं नयते विशेषम् ||४०|| ५१ ' (७ वीं कारिकामे 'अभेद भेदात्मकमर्थतत्त्व' इस वाक्यके द्वारा यह बतलाया गया है कि वीरशासन मे वस्तुतत्त्वको सामान्य विशेषात्मक माना गया है, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि जो विशेष है वे सामान्यमे निष्ठ ( परिसमास ) है या सामान्य विशेषोमे निष्ठ है अथवा सामान्य और विशेष दोनो परस्पर में निष्ठ है ? इसका उत्तर इतना ही है कि ) जो विविध विशेष हैं वे सब सामान्यनिष्ठ है - अर्थात् एक द्रव्यमे रहने वाले क्रम भावी और सहभावीके भेद-प्रभेटको लिये हुए जो परिस्पन्द और परिस्पन्दरूप नाना प्रकार के पर्याय' हैं वे सब एक द्रव्यनिष्ठ होने से ऊर्ध्वता - सामान्य मे परिसमाप्त है । और इसलिये विशेषो में निष्ठ सामान्य नहीं है, क्योकि तब किसी विशेष (पर्याय) के प्रभाव होनेपर सामान्य (द्रव्य) के भी प्रभाव का प्रसंग आयेगा, जो प्रत्यक्षविरुद्ध है - किसी भी विशेषके नष्ट होनेपर १. क्रमभावी पर्यायें परिस्पन्दरूप हैं, जैसे उत्क्षेपणादिक । सहभावी पर्यायें परिस्पन्दात्मक हैं और वे साधारण, साधारणाऽसाधारण और असाधारण भेदसे तीन प्रकार हैं । सत्व प्रमेयत्वादिक साधारण धर्मं हैं, द्रव्यत्व- जीवत्वादिक साधारणाऽसाधारण धर्म हैं और वे श्रर्थ पर्यायें साधारण है जो द्रव्य - द्रव्यके प्रति प्रभिद्यमान और प्रतिनियत हैं। २ सामान्य दो प्रकारका होता है - एक ऊर्ध्वतासामान्य दूसरा तिर्थकसामान्य । क्रमभावी पर्यायोंमे एकत्वान्वयज्ञानके द्वारा ग्राह्म जो द्रव्य है वह ऊर्ध्ववासामान्य है और नाना द्रव्यों तथा पर्यायोंमें सादृश्यज्ञानके द्वाप्राह्य जो सद्दशपरिणाम है वह तिर्यक सामान्य है ।
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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