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________________ ४८ समन्तभद्र-भारती का०३७ व्याख्या-- इस कारिकामे 'दीक्षासममुक्तिमाना.' पद दो अथोमे प्रयुक्त हुआ है । एक अर्थमे उन मान्त्रिकीका ( मन्त्रवादियोका ) ग्रहण किया गया है जो मन्त्र-दीक्षाके समकाल ही अपनेको मुक्त हुआ समझ कर अभिमानी बने रहते हैं, अपनी दीक्षाको यम-नियम रहित होते हुए भी अनाचारकी क्षयकारिणी समर्थदीक्षा मानते हैं और इस लिये बडसे-बडे अनाचार-हिंसादिक घोर पाप-करते हुए भी उसमे कोई दोष नही देखते-कहते है 'स्वभावसे ही यथेच्छ प्रवृत्ति होनेके कारण बडेसे-बडे अनाचारके मार्ग भी दोपके कारण नहीं होते और इसलिये उन्हे उनका आचरण करते हुए भी प्रसिद्ध जीवन्मुक्तकी तरह कोई दोष नहीं लगता।' दूसरे अर्थमे उन मीमासकोका ग्रहण किया गया है जो कमाके क्षयसे उत्पन्न अनन्तनानादिरूप मुक्तिका होना नहीं मानते, यम-नियमादिरूप दीक्षा भी नहीं मानते और स्वभावसे ही जगतके भूतो ( प्राणियो ) की स्वच्छन्द-प्रवृत्ति बतलाकर मासभक्षण, मदिरापान और यथेच्छ मैथुनसेवनजैसे अनाचारोमे कोई दोष नही देखते। साथ ही, वेद-विहित पशुवधादि ऊँचे दर्जे के अनाचार मागोको भी निर्दोष बतलाते हैं, जबकि वेद-बाह्य ब्रह्महत्यादिको निर्दोष न बतलाकर सदोष ही घोषित करते है। ऐसे सब लोग वीर जिनेन्द्रकी दृष्टि अथवा उनके बतलाये हुए सन्मार्गसे बाह्य हैं, ठीक तत्त्वके निश्चयको प्राप्त न होनेके कारण सदोषको निर्दोष मानकर विभ्रममे पडे हुए है और इसी लिये प्राचार्यमहोदयने उनकी इन दूषित प्रवृत्तियोपर खेद व्यक्त किया है और साथ ही यह सूचित किया है कि हिंसादिक महा अनाचारोके जो मार्ग हैं वे सब सदोष हैं-उन्हे निर्दोष सिद्ध नहीं किया जा सकता, चाहे वे वेदादि किसी भी भागमविहित हो या अनागमविहित हो । १ "दोक्षया समासमकाला दीक्षासमा सा चासौ मुक्तिश्च सा दीहासमा मुक्तिस्तस्यामानोऽभिमानो येषा ते दीक्षासममुक्तिमाना. । अथवा दीक्षाऽसं मया भवत्येवममुक्ति मन्यमाना मीमासका ।" -इति विद्यानन्द
SR No.010665
Book TitleYuktyanushasan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1951
Total Pages148
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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