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________________ जिन-पूजाधिकार-भीमासा समस्त कारणोसे हमारा परमपूज्य उपास्य देव है और द्रव्यदृष्टिसे समस्त प्रात्मानोंके परस्पर समान होनेके कारण वह परमात्मा सभी ससारी जीवोंका समान-मावसे पूज्य है । यही कारण है कि परमात्माके 'खोक्यपूज्य' और 'जगत्पूज्य' इत्यादि नाम भी कहे जाते हैं । परमात्माका पूजन करने, परमात्माके गुणोंमे अनुराग बढाने और परमात्माका भजन और चिन्तवन करनेसे इस जीवात्माको पापोंसे बचनेके साथ साथ महत्पुण्योपार्जन होता है। जो जीव परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना नहीं करता, वह अपने आत्मीय गुणोंसे पराड्मुख और अपने प्रात्मलाभसे वचित रहता हैं-इतना ही नहीं, किन्तु वह कृतघ्नताxके दोषसे भी दूषित होता है। अत परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना करना सबके लिये उपादेय और जरूरी है। __ परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्था अर्थात् अर्हन्त-अवस्थामे सदा और सर्वत्र विद्यमान नहीं रहता, इस कारण परमात्माके स्मरणार्थ और परमात्माके प्रति आदर-सत्काररूप प्रवर्तनके आलम्बनस्वरूप उसकी अर्हन्त अवस्थाकी मूर्ति बनाई जाती है। वह मूर्ति परमात्माके वीतरागता, शान्तता और ध्यानमुद्रा आदि गुणोका प्रतिबिम्ब होती है। उसमें स्थापनानिक्षेपसे मत्रोद्वारा परमात्माकी प्रतिष्ठा की जाती जिनमे प्रात्माकी कुछ शक्तियाँ विकसित हुई हैं और जिन्होंने अपने उपदेश, पाचरण और शास्त्रनिर्माणसे हमारा उपकार किया है, बैं सब हमारे पूज्य हैं। xअहसान फरामोशी या किये हुए उपकारको भूल जाना कृतघ्नता है । "अभिमतफलसि रभ्युपाय: सुबोध प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्ध न हि कृतमुपकार साधवो विस्रन्ति ।" गोम्मटसार-टीका
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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