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________________ युगवीर-निबन्धाती बात बिल्कुल स्पष्ट है, ये सब प्रक्स्पाए न कि अनेकान्ताश्रित हैंअनेकान्तके आश्रय बिना इन परस्पर विरुद्ध मालूम पड़नेवाली सापेक्ष अवस्थामोंकी कोई स्वतन्त्र सत्ता अथवा व्यवस्था नही बन सकती। इसलिये जो अनेकान्तके बेरी है-अनेकान्त-सिद्धान्तसे देष रखते हैं. उनके यहाँ ये सब व्यवस्थाए सुघटित नहीं हो सकती। अनेकान्तके प्रतिषेधसे क्रम-अकमका प्रतिषेध हो जाता है; क्योकि क्रम-अक्रमकी अनेकान्तके साथ व्याप्ति है । जब अनेकान्त ही नहीं तब क्रम-प्रक्रमकी व्यवस्था क्से बन सकती है ? अर्थात द्रब्यके प्रमाक्मे जिस प्रकार गुरण-पर्यायकी और वृक्षके अभावमे शीशम, जामन, नीम, अाम्रादिकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती उसी प्रकार अनेकान्तके अभावमे क्रम-अक्रमकी भी व्यवस्था नही बन सकती। क्रम-प्रक्रमकी व्यवस्था न बननेसे अर्थक्रियाका निषेध हो जाता है, क्योंकि अर्थक्रियाको क्रम अक्रमके साथ व्याप्ति है । और अर्थक्रियाके अभावमें कर्मादिक नही बन सकते कर्मादिककी प्रक्रियाके साथ व्याप्ति है । जब शुभ-अशुम-कर्म ही नहीं बन सकते तब उनका फल सुख-दुख, फल-भोगका क्षेत्र, जन्मान्तर (लोक-परलोक) और कर्मोंसे बचने तथा छूटनेकी बात तो कैसे बन सकती है? साराश यह कि अनेकातके आश्रय बिना ये सब शुभाऽशुभ-कर्मादिक निराश्रित होजाते हैं, और इसलिए सर्वथा नित्यादि एकातवादियोंके मतमें इनकी कोई ठीक व्यवस्था नहीं बन सकती । वे यदि इन्हे मानते हैं और तपश्चरणादिके अनुष्ठान द्वारा सत्कमोकर अर्जन करके उनका सत्फल लेना चाहते हैं अथवा कोसे मुक्त होना चाहते हैं तो वे अपने इष्टको अनेकातका विरोध करके बाधा पहुंचाते हैं, और इस तरह भी अपनेको स्व-पर-वैरी सिद्ध करते हैं। वस्तुत' अनेकान्त, भाव प्रभाव, नित्य-अनित्य, भेद-पमेद मादि एकान्तनयोंके विरोधको मिटाकर, वस्तुतत्त्वको सम्यक्व्यवस्था करनेवाला है; इसीसे लोक व्यवहारका सम्यक् प्रवर्तक है--
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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