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________________ होलीका त्योहार भौर उसका सुधार ३४३ है । अथवा यो कहिये कि इसके द्वारा राष्ट्रके लिये विघातक ऐसे राग-द्वेषादि-मूलक अनुचित भेद-भावोको कुछ समयके लिये भुलाया जाता है— उन्हे भुलाने तथा जलाने तकका उपक्रम एव प्रदर्शन किया जाता है - और इस तरह राष्ट्रीय एकताको बनाये रखने अथवा राष्ट्रीय- समुत्थानके मार्गको साफ करनेका यह भी एक कदम अथवा ढग होता है । 'होलीकी कोई दाद-फर्याद नही' यह लोकोक्ति भी इसी भावको पुष्ट करती है, और इसलिये इस त्योहारको अपने असली रूपमें समता और स्वतंत्रताका रूपक ही नही, किन्तु एक प्रतीक कहना ज्यादा अच्छा मालूम होता है । समय भी इसके लिये अच्छा चुना गया है, जो कि बसन्त ऋतुका मध्यकाल होनेसे प्रकृतिके विकासका यौवन काल है । प्रकृतिके इस विकाससे पदार्थ- पाठ लेकर हमे उसके साथ साथ अपने देश-राष्ट्र एव आत्माका विकास अथवा उत्थान सिद्ध करना ही चाहिये । उसीके प्रयत्न - स्वरूप - उसी लक्ष्यको सामने रखकर - यह त्यौहार मनाया जाता था, और तब इसका मनाना बडा ही सुन्दर जान पडता था । परन्तु खेद है कि ग्राज वह बात नही रही । उसका वह लक्ष्य और उद्देश्य ही नही रहा जो उसके मूलमे काम करता था । उसके पीछे जो शुभ भावनाएँ दृष्टिगोचर होती थी और जिन्हे लेकर ही वह लोकमे प्रतिष्ठित हुआ था उन सबका आज प्रभाव है | आज तो यह त्यौहार इन्द्रिय-वृत्तियोको पुष्ट करनेका आधार अथवा चित्तकी जघन्य वृत्तियोको प्रोत्तेजन देनेका साधन बना हुआ है, जो कि व्यक्ति और राष्ट्र दोनोके पतनका कारण है और त्यौहारके रूपमे उसका कोई भी महान ध्येय सामने नही है । इसीसे होलीका वर्तमानरूप विकृत कहा जाता है, उसमें प्रारण न होनेसे वह देशके लिये भाररूप है और इसलिये उसे उसके वर्तमान रूपमें मनाना उचित नही है । उसमें शरीक होना उसके विकृत रूपको पुष्ट करना है ।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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