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________________ ३३२ युगवीर- निबन्धावली 1 विद्या' नामक ग्रन्थ (जिनशतक) से यहाँ उद्धृत किया जाता है सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यचनं चापि ते हस्तावंजलये कथा श्रुतिरतः कर्णोऽक्षिसंप्रेक्षते । सुम्तुत्या व्यसन शिरोनतिपर से वेदृशी येन ते तेजस्त्री सुजनोऽहमेव सुकृती तेनैव तेज पते ॥ ११४॥ इसमे बतलाया है कि - 'हे भगवन् । श्रापके मतमे प्रथवा प्रापके ही विषय में मेरी सुश्रद्धा है - अन्धश्रद्धा नही, मेरी स्मृति भी आपको ही अपना विषय बनाये हुए है, मैं पूजन भी आपका ही करता हूँ, मेरे हाथ आपको ही प्ररणामाजलि करनेके निमित्त है, मेरे कान आपकी ही गुणकथा सुननेमे लीन रहते हैं, मेरी आँखें आपके ही रूपको देखती है, मुझे जो व्यसन है वह भी आपकी ही सुन्दर स्तुतियो' के रचनेका है और मेरा मस्तक भी आपको ही प्ररणाम करनेमे तत्पर रहता है, इस प्रकारकी चूँकि मेरी सेवा है - मैं निरन्तर ही प्रापका इस तरह पर सेवन किया करता हूँ - इसीलिये हे तेज पते । ( केवलज्ञानस्वामिन् 1 ) मै तेजस्वी हूँ, सुजन हूँ प्रौर सुकृति ( पुण्यवान् ) हूँ ।' यहाँ पर किसीको यह न समझ लेना चाहिये कि सेवा तो बडो - की - पूज्य पुरुषो एव महात्मानोकी होती है और उसीसे कुछ फल भी मिलता है, छोटो - असमर्थों अथवा दीन-दुखियों आदिकी सेवामें क्या धरा है ? ऐसा समझना भूल होगा । जितने भी बडे, पूज्य, महात्मा अथवा महापुरुष हुए हैं वे सब छोटो, श्रसमर्थों, असहायो एव दीन-दुखियोकी सेवासे ही हुए हैं-सेवा ही सेवकोको सेव्य बनाती अथवा ऊँचा उठाती है और इसलिये ऐसे महान लोक-सेवकोकी १. समन्तभद्रकी देवागम युक्त्यनुशासन और स्वयं भूस्तोत्र नामकी स्तुतियाँ बडे ही महत्वकी एव प्रभावशालिनी है और उनमे सूत्ररूपसे जैनागम अथवा वीरशासन भरा हुआ है ।
SR No.010664
Book TitleYugveer Nibandhavali Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1963
Total Pages485
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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